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अनज़ान रास्तों पे, निकलना न परिन्दों
मंजिल को हँसी-खेल, समझना न परिन्दों
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आगे कदम बढ़ाना, ज़रा देख-भाल कर
काँटों से तुम कभी भी उलझना न परिन्दों
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भोले कबूतरों के लिए, ज़ाल हैं बिछे
लालच की उस जमीं पे, उतरना न परिन्दों
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इंसान आजकल के तो, शैतान हो गये
भरकर चटक-लिबास, सँवरना न परिन्दों
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अब मीत-मीत का ही, गला काट रहे हैं
यूँ ही सभी के साथ, विचरना न परिन्दों
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हिल-मिल के रहना आप, जमाने के साथ में
सुन लेना सबकी बात, बिगड़ना न परिन्दों
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भेड़ों के 'रूप' में, छिपे हैं भेड़िये यहाँ
फूलों को देख करके, मचलना न परिन्दों
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बुधवार, 13 मई 2020
ग़ज़ल "अनज़ान रास्तों पे निकलना न परिन्दों" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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