गरमी ज्यादा पड़ रही, जीवन है बदहाल।।
--
सिर पर रख कर तौलिया, चेहरे पर रूमाल।
ढककर बाहर निकलिए, अपने-अपने गाल।।
--
आग बरसती धरा पर, धूप हुई विकराल।
विकल हो रहे प्यास से, वन में विहग मराल।।
--
दूर-दूर तक जल नहीं, सूखे झील-तड़ाग।
पानी की अब खोज में, उड़ते नभ में काग।।
--
चहल-पहल अब है नहीं, सूने हैं बाजार।
व्यापारी दूकान में, रहे मक्खियाँ मार।।
--
बिजली का संकट बढ़ा, पंखे-कूलर बन्द।
पंखा झलकर हाथ का, नहीं मिला आनन्द।।
--
इस गरमी ने सभी का, छीन लिया चैन।
नहीं पसीना सूखता, तन-मन है बेचैन।।
--
पेड़ आज कम हो गये, बढ़ा धरा का ताप।
आज सामने आ गये, जन-मानस के पाप।।
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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रविवार, 31 मई 2015
दोहे "जीवन है बदहाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 30 मई 2015
"बच्चों पर तो संस्कार पड़ते ही हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शुक्रवार, 29 मई 2015
दोहाग़ज़ल "लफ्जों का व्यापार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ज़ज़्बातों की शायरी, करती दिल पर वार।।
बिना बनावट के जहाँ, होते हैं अल्फाज़,
अच्छे लगते वो सभी, प्यार भरे अशआर।
मतला-मक़्ता-क़ाफिया, हुए ग़ज़ल से दूर,
मातम के माहौल में, सजते बन्दनवार।
डूब रही है आजकल, उथले जल में नाव,
छूट गयी है हाथ से, केवट के पतवार।
अब कविता के साथ में, होता है अन्याय,
आज क़लम में है नहीं, वीरों की हुँकार।
शायर बनकर आ गये, अब तो सारे लोग,
कलियों-फूलों पर बहुत, होता अत्याचार।
कृत्रिमता से किसी का, नहीं दमकता “रूप”
चाटुकार-मक्कार अब, इज़्ज़त के ह़कदार।
|
गुरुवार, 28 मई 2015
"हिन्दी ब्लॉगिंग की दुर्दशा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आपकी अपनी भाषा देवनागरी
आपकी बाट जोह रही है...
![]()
एक वह भी समय था जब
हिन्दीब्लॉगिंग ऊँचाइयों के आकाश को छू रही थी। उस समय हिन्दी के ब्लॉगों पर टिप्पणियों की भरमार रहती थी। मगर आज हिन्दीब्लॉगिंग की दुर्दशा को को
देखकर मन बहुत उदास और खिन्न हो रहा है। आखिर क्या कारण है कि सन् 2013 के बाद हिन्दी
ब्लॉगिंग के प्रति लोगों का रुझान अचानक कम हो गया है?
कई लोगों से इस
सम्बन्ध में बात होती है तो वो कहते हैं कि फेसबुक के कारण हिन्दी ब्लॉगिंग पिट
गयी है। मेरे एक बहुत पुराने श्री...अमुक... जी हिन्दी ब्लॉगिंग के पुरोधा माने
जाते थे। उनसे अभी एक सप्ताह पहले मेल पर बात हो रही थी मैंने कहा...मित्र आप तो
एक दम हिन्दी ब्लॉगिंग से गायब हो गये। तो उन्होंने एक बड़ा अटपटा सवाल मुझ पर
दाग दिया- “अरे...! क्या हिन्दी ब्लॉगिंग अभी चल रही है?” उनकी बात सुन कर
मुझे बहुत अटपटा लगा। लेकिन मैंने उन्हें उल्टा जवाब न देकर इतना ही कहा कि हाँ
मित्र चल रही है और मैं अपने ब्लॉग “उच्चारण” पर नियम से प्रतिदिन अपनी पोस्ट
लगाता हूँ।
आइए विचार करें कि
हिन्दी ब्लॉगिंग क्यों पिछड़ रही है?
1 – इसका सबसे
प्रमुख कारण है कि सुस्थापित और जाने-माने ब्लॉगरों का अपनी पोस्ट के कमेंट पर
मॉडरेशन लगाना। अर्थात् पोस्ट पर की टिप्पणी को देख कर ही प्रकाशित करना। यानि
मीठा-मीटा हप्प...और कड़वा-कड़वा थू। आप उनकी पोस्ट पर की सुझाव या सलाह देंगे
तो उनको यह कतई स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि वह स्वयंभू विद्वान हैं ब्लॉगिंग के। जबकिवे लोग फेसबुक परभी हैं परन्तु वहाँ ऐसा
नहीं है। आप फेसबुक की किसी भी पोस्ट का पोस्टमार्टम करके अपने विचार रख सकते
हैं। आपकी टिप्पणी यहाँ बस एक क्लिक करते ही तुरन्त प्रकाशित होती है।
2 – दूसरा कारण यह
है कि आप अपने मित्रों के साथ ब्लॉग से सीधे बात-चीत नहीं कर सकते। यद्यपि इसका
विकल्प जीमेल में है। आप जी मेल में जाकर अपने मित्रों से वार्तालाप कर सकते
हैं। किन्तु परेशानी यह है कि बहुत से ब्लॉगर मेल पर अपने को अदृश्य रखने में
अपनी शान समझते हैं।
3 – तीसरा सबसे
बड़ा कारण यह है कि बहुत से लोग देवनागरी में लिखने में या तो असमर्थ हैं या उन्हें
तकनीकी ज्ञान नहीं है। जानकारी के लिए यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि गूगल ने यह
सुविधा दी हुई है कि की भी व्यक्ति यदि हिन्दी में लिखना चाहे तो वह अपने
कम्प्यूटर के कण्ट्रॉल पैनल में जाकर रीजनल लैंग्वेज में भारत की भाषा हिन्दी को
जोड़ सकता है। इसके बाद वो व्यक्ति यदि रोमन में लिखेगा तो उसकी भाषा देवनागरी
में रूपान्तरित होती चली जायेगी।
4 – चौथा कारण यह
है कि हर व्यक्ति शॉर्टकट अपनाने में लगा हुआ है। यानि सीधे-सीधे फेसबुक पर लिख
रहा है। यबकि होना तो यह चाहिए कि यदि व्यक्ति ब्लॉगर है तो सबसे पहले उसे अपनी
पोस्ट को ब्लॉग में लिखना चाहिए। क्योंकि ब्लॉगपोस्ट को गूगल तुरन्त सहेज लेता
है और आपकी पोस्ट अमर हो जाती है। आप कभी भी अपनी पोस्ट का की-वर्ड लिख कर गूगल
में उसे सर्च कर सकते हैं।
5 – एक और सबसे
महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि ब्लॉगर चाहते तो यह हैं उनकी पोस्ट पर कमेंट बहुत
सारे आये, मगर दिक्कत यह है कि वे स्वयं दूसरों की पोस्ट पर कमेंट नहीं करते हैं। अधिक
कमेंट न आने के कारण ब्लॉगर का ब्लॉग लिखने का उत्साह कम हो जाता है।
आज कम्प्यूटर और
इण्टरनेट का जमाना है। जो हमारी बात को पूरी दुनिया तक पहुँचाता है। हम कहने को
तो अपने को भारतीय कहते हैं लेकिन विश्व में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए
हम कितनी निष्ठा से काम कर रहे हैं यह विचारणीय है। हमारा कर्तव्य है कि हम यदि
अंग्रेजी और अंग्रेजियत को पछाड़ना चाहते हैं तो हमें अन्तर्जाल के माध्यम से
अपनी हिन्दी को दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाना होगा। इसके लिए हम अधिक से अधिक
ब्लॉग हिन्दी में बनायें और हिन्दी में ही उन पर अपनी पोस्ट लगायें। इससे हमारी
आवाज तो दुनिया तक जायेगी ही साथ ही हमारी भाषा भी दुनियाभर में गूँजेगी। आवश्यक
यह नहीं है कि हमारे राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष दूसरे देशों में जाकर हिन्दी में
बोल रहे हैं या नहीं बल्कि आवश्यक यह है कि हम पढ़े-लिखे लोग कितनी निष्ठा के
साथ अपनी भाषा को सारे संसार में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं।
अन्त में एक निवेदन
उन ब्लॉगर भाइयों से भी करना चाहता हूँ जो कि उनका ब्लॉग होते हुए भी वे हिन्दी
ब्लॉगिंग के प्रति बिल्कुल उदासीन हो गये हैं। जागो मित्रों जागो! और अभी जागो! तथा अपने
ब्लॉग पर सबसे पहले लिखो। फिर उसे फेसबुक / ट्वीटर पर साझा करो। आपकी अपनी भाषा
देवनागरी आपकी बाट जोह रही है।
|
बुधवार, 27 मई 2015
ग़ज़ल "कैसे पौध उगाऊँ मैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कैसे लिखूँ ग़ज़ल का मतला, मक्ता कैसे पाऊँ मैं।
|
नहीं रहे अब झाड़ी जंगल, भटक रहा हूँ राहों में,
पात-पात में छुपे शिकारी, कैसे जान बचाऊँ मैं।
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आफताब़-माहताब़ उन्हीं के, जिनके केवल नाम बड़े,
जालजगत के सिवा शायरी, बोलो कहाँ लगाऊँ मैं।
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सोनचिरय्या के सब गहने, छीन लिए गौरय्यों ने,
खर-पतवार भरे खेतों में, कैसे पौध उगाऊँ मैं।
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पूजा होती “रूप” रंग की, ज्ञानी याचक-चाकर हैं
लुप्त हुए चाणक्य, कहाँ से सुथरा-शासन लाऊँ मैं।
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मंगलवार, 26 मई 2015
"देते हैं आनन्द अनोखा रिश्ते-नाते प्यार के" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]()
ढंग निराले होते जग में, मिले जुले परिवार के।
देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के।।
हो ऐसा वो चमन जहाँ पर, रंग-बिरंगे फूल खिलें,
अपनापन हो सम्बन्धों में, आपस में सब गले मिलें,
ग्रीष्म-शीत-बरसात सुनाये, नगमें सुखद बहार के।
देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के।।
पंचम सुर में गाये कोयल, कलिका खुश होकर चहके,
नाती-पोतों की खुशबू से, घर की फुलवारी महके,
माटी के कण-कण में गूँजें, अभिनव राग सितार के।
देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के।।
नग से भू तक, कलकल करती, सरिताएँ बहती जायें,
शस्यश्यामला अपनी धरती, अन्न हमेशा उपजायें,
मिल-जुलकर सब पर्व मनायें, थाल सजें उपहार के।
देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के।।
गुरूकुल हों विद्या के आलय, बिके न ज्ञान दुकानों में,
नहीं कैद हों बदन हमारे, भड़कीले परिधानों में,
चाटुकार-मक्कार बनें ना, जनसेवक सरकार के।
देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के।।
बरसें बादल-हरियाली हो, बुझे धरा की प्यास यहाँ, चरागाह में गैया-भैंसें, चरें पेटभर घास जहाँ, झूम-झूमकर सावन लाये, झोंके मस्त बयार के। देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के।। |
सोमवार, 25 मई 2015
"लघु कथा-माँ की ममता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
रविवार, 24 मई 2015
दोहे "किया बहुत उपकार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
जननी को शत्-शत् नमन
![]() नारी होता में अगर, करने पड़ते काम। दिन में पलभर भी नहीं, मिल पाता आराम।१। -- मेरे सरल सुभाव पर, मिलता ये उपहार। सास-ननद देतीं मुझे, तानों की बौछार।२।
--
देते पग-पग पर मुझे, साजन भी सन्ताप। लेकिन महिला मित्र से, हँस-हँस करते बात।३। -- सहती ज़ुल्म समाज के, दुनिया भर में नार। अग्निपरीक्षा में गये, जीवन कई हजार।४। -- जातक जनने में मुझे, मिलता कष्ट अपार। सहनी होती वेदना, मुझको बारम्बार।५। -- बहुत-बहुत आभार है, जग के सिरजनहार। नर का मुझको रूप दे, किया बहुत उपकार।६। -- कहने को दुश्मन नहीं, लेकिन शत्रु हजार। जग की जननी नार को, अबला रहे पुकार।७। -- ममता का पर्याय है, दुनिया की हर नार। नारी तेरे “रूप” को, नतमस्तक शत् बार।८। -- नारी का अब तक नहीं, कोई बना विकल्प। करती है परिवार का, नारी काया-कल्प।९। -- नारी की महिमा करूँ, कैसे आज बखान। कम पड़ जाते शब्द हैं, करने को गुणगान।१०। |
"सत्य-अहिंसा वाले गुलशन बेमौसम वीरान हो गये" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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शनिवार, 23 मई 2015
"मौसम नैनीताल का" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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गरमी में ठण्डक पहुँचाता,
मौसम नैनीताल का!
मस्त नज़ारा मन बहलाता,
माल-रोड के माल का!!
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नौका का आनन्द निराला,
क्षण में घन छा जाता काला,
शीतल पवन ठिठुरता सा तन,
याद दिलाता शॉल का!
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पलक झपकते बादल आते,
गरमी में ठण्डक पहुँचाते,
कुदरता का ये अजब नज़ारा,
लगता बहुत कमाल का!
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लू के गरम थपेड़े खा कर,
आम झूलते हैं डाली पर,
इन्हें देख कर मुँह में आया,
मीठा स्वाद रसाल का!
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चीड़ और काफल के छौने,
पर्वत को करते हैं बौने,
हरा-भरा सा मुकुट सजाते,
ये गिरिवर के भाल का!
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सजा हुआ सुन्दर बाजार,
ऊनी कपड़ों का अम्बार,
मेले-ठेले, बाजारों में,
काम नहीं कंगाल का!
गरमी में ठण्डक पहुँचाता,
मौसम नैनीताल का!
मस्त नज़ारा मन बहलाता,
माल-रोड के माल का!!
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शुक्रवार, 22 मई 2015
"आम फलों का राजा, लीची होती रानी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आम फलों का राजा होता
लीची होती रानी
गुठली ऊपर गूदा होता
छिलका है बेमानी
![]()
जब बागों में कोयलिया ने,
अपना राग सुनाया
आम और लीची का समझो,
तब मौसम है आया
पीले, लाल-हरे रंग पर,
सब ही मोहित हो जाते
ये खट्टे-मीठे फल सबके,
मन को बहुत लुभाते
लीची पक जाती है पहले,
आम बाद में आते
बच्चे, बूढ़े-युवा प्यार से,
इनको जमकर खाते
ठण्डी छाँव, हवा के झोंके,
अगर चाहते पाना
घर के आँगन में फलवाले,
बिरुए आप लगाना
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गुरुवार, 21 मई 2015
"लीची के गुच्छे मन भाए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हरी, लाल और पीली-पीली!
लीची होती बहुत रसीली!!
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गायब बाजारों से केले।
सजे हुए लीची के ठेले।।
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आम और लीची का उदगम।
मनभावन दोनों का संगम।।
लीची के गुच्छे हैं सुन्दर।
मीठा रस लीची के अन्दर।।
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गुच्छा बिटिया के मन भाया!
उसने उसको झट कब्जाया!!
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लीची को पकड़ा, दिखलाया!
भइया को उसने ललचाया!!
भइया के भी मन में आया!
सोचा इसको जाए खाया!!
गरमी का मौसम आया है!
लीची के गुच्छे लाया है!!
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दोनों ने गुच्छे लहराए!
लीची के गुच्छे मन भाए!!
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नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...