मेरी पुस्तक "ग़ज़लियात-ए-रूप" से
एक ग़ज़ल
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सुखद बिछौना सबको प्यारा लगता है
यह तो दुनिया भर से न्यारा लगता है
जब पूनम का चाँद झाँकता है नभ से
उपवन का कोना उजियारा लगता है
सुमनों की मुस्कान भुला देती दुखड़े
खिलता गुलशन बहुत दुलारा लगता है
जब मन पर विपदाओं की बदली छाती
तब सारा जग ही दुखियारा लगता है
देश चलाने वाले हाट नहीं जाते
उनको तो मझधार किनारा लगता है
बातों से जनता का पेट नहीं भरता
सुनने में ही प्यारा नारा लगता है
दूर-दूर से “रूप” पर्वतों का भाता
बाशिन्दों को कठिन गुजारा लगता है
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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020
ग़ज़ल "कठिन गुजारा लगता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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