कथितरूप से कह रहे, अपने को भगवान।।
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मन में तो है कलुषता, होठों पर हरि नाम।
भरे पड़े हैं जगत में, कितने आशाराम।।
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चिड़ियों पर हैं झपटते, बन कर भोले बाज।
अबलाओं की कपट से, लूट रहे हैं लाज।।
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क्यों सन्तों की माँद में, भरे हुए हथियार।
उन्हें सुरक्षा की भला, कैसी है दरकार।।
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डर लगता सरकार को, इनका देख वजूद।
साधन भोग-विलास के, महलों में मौजूद।।
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जाल फेंकते हो जहाँ, बनकर लाखों शिष्य।
अन्धकार से है भरा, समझो वहाँ भविष्य।।
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लिए कटोरा भीख का, बने हुए कंगाल।
लेकिन सन्त-महन्त हैं, सबसे मालामाल।।
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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बुधवार, 31 मई 2017
दोहे "होठों पर हरि नाम" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दोहे "तम्बाकू को त्याग दो, होगा बदन निरोग" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गघे नहीं खाते जिसे, तम्बाकू वो चीज।
खान-पान की मनुज को, बिल्कुल नहीं तमीज।।
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रोग कैंसर का लगे, समझ रहे हैं लोग।
फिर भी करते जा रहे, तम्बाकू उपयोग।।
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खैनी-गुटका-पान का, है हर जगह रिवाज।
गाँजा, भाँग-शराब का, चलन बढ़ गया आज।।
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तम्बाकू को त्याग दो, होगा बदन निरोग।
जीवन में अपनाइए, भोग छोड़कर योग।।
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पूरब वालो छोड़ दो, पश्चिम की सब रीत।
बँधा हुआ सुर-ताल से, पूरब का संगीत।।
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खोलो पृष्ठ अतीत के, आयुध के संधान।
सारी दुनिया को दिया, भारत ने विज्ञान।।
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जगतगुरू यह देश था, देता जग को ज्ञान।
आज नशे की नींद में, सोया चादर तान।।
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मंगलवार, 30 मई 2017
दोहे "पत्रकारिता दिवस" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पत्रकारिता दिवस पर, होता है अवसाद।
गुणा-भाग तो खूब है, मगर नहीं गुणवाद।।
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पत्रकारिता में लगे, जब से हैं मक्कार।
छँटे हुओं की नगर के, तब से है जयकार।।
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समाचार के नाम पर, ब्लैकमेल है आज।
विज्ञापन का चल पड़ा, अब तो अधिक रिवाज।।
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पीड़ा के संगीत में, दबे खुशी के बोल।
देश-वेश-परिवेश में, कौन रहा विष घोल।।
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बैरी को तो मिल गये, घर बैठे जासूस।
सच्ची खबरों के लिए, देनी पड़ती घूस।।
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ख़बरें अब साहित्य की, हुई पत्र से लुप्त।
सामाजिकता हो रही, इसीलिए तो सुप्त।।
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मिर्च-मसाला झोंक कर, छाप रहे अखबार।
हत्या और बलात् की, ख़बरों की भरमार।।
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पड़ी बेड़ियाँ पाँव में, हाथों में जंजीर।
सच्चाई की हो गयी, अब खोटी तकदीर।।
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आँगन-वन के वृक्ष अब, हुए सुखकर ठूठ।
सच्चाई दम तोड़ती, जिन्दा रहता झूठ।।
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जिसमें पूरा तुल सके, नहीं रही वो तोल।
अब तो कड़वे बोल का, नहीं रहा कुछ मोल।।
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सोमवार, 29 मई 2017
दोहे "उल्लू का आतंक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दुनियाभर में बहुत हैं, ऐसे जहाँपनाह।
उल्लू की होती जिन्हें, कदम-कदम पर चाह।।
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उल्लू का होता जहाँ, शासन पर अधिकार।
समझो वहाँ समाज का, होगा बण्टाधार।।
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खोज रहें हों घूस के, उल्लू जहाँ उपाय।
न्यायालय में फिर कहाँ, होगा पूरा न्याय।।
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दिनभर जो सोता रहे, जागे पूरी रात।
वो मानव की खोल में, उल्लू की है जात।।
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जगह-जगह फैला हुआ, उल्लू का आतंक।
कैसा भी तालाब हो, रहता ही है पंक।।
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सत्ता के मद-मोह में, बनते सभी उलूक।
इसीलिए होता नहीं, अच्छा कभी सुलूक
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बैठा जिनके शीश पर, उल्लू जी का भूत।
आ जाता है खुद वहाँ, लालच बनकर दूत।।
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दोहे "कहते लोग रसाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आम-खास के बीच में, अब लेकिन भरी खटास।।
भरी हुई है आम में, जब तक बहुत मिठास।
तब तक दोनों में रहे, नातेदारी खास।।
आम-खास के
खेल में, आम गया है हार।
आम सभी की
कर रहा, सदियों से मनुहार।।
खाते-खाते आम को, लोग बन गये खास।
मगर आम की बात का, करते सब उपहास।।
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आम पिलपिले हो भले, देते हैं आनन्द।
उन्हें चूसने में मिले, वाणी को मकरन्द।।
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अमुआ अपने देश के, दुनिया में मशहूर।
लेकिन आज गरीब की, हुए पहुँच से दूर।।
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मीठा-मीठा आम में, भरा हुआ है माल।
इसीलिए तो आम को, कहते लोग रसाल।।
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रविवार, 28 मई 2017
गीत "चीत्कार पसरा है सुर में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 27 मई 2017
गीत "इनकी किस्मत कौन सँवारे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लड़ते खुद की निर्धनता से,
भारत माँ के राजदुलारे।
कूड़ा-कचरा बीन रहे हैं,
बालक देखो प्यारे-प्यारे।।
भूख बन गई है मजबूरी,
बाल श्रमिक करते मजदूरी,
झूठे सब सरकारी दावे,
इनकी किस्मत कौन सँवारे।
बीन रहे हैं कूड़ा-कचरा,
बालक अपने प्यारे-प्यारे।।
टूटे-फूटे हैं कच्चे घर,
नहीं यहाँ पर, पंखे-कूलर.
महलों को मुँह चिढ़ा रही है,
इनकी झुग्गी सड़क किनारे।
बीन रहे हैं कूड़ा-कचरा,
बालक अपने प्यारे-प्यारे।।
मिलता इनको झिड़की-ताना,
दूषित पानी, झूठा खाना,
जनसेवक की सेवा में हैं,
अफसर-चाकर कितने सारे।
बीन रहे हैं कूड़ा-कचरा,
बालक अपने प्यारे-प्यारे।।
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शुक्रवार, 26 मई 2017
गीतिका "स्वर सँवरता नहीं, आचमन के बिना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
स्वर सँवरता नहीं, आचमन के बिना।
पग ठहरता नहीं, आगमन के बिना।।
देश-दुनिया की चिन्ता, किसी को नहीं,
मन सुधरता नहीं, अंजुमन के बिना।
मोह माया तो, दुनिया का दस्तूर है,
सुख पसरता नहीं, संगमन के बिना।
खोखली देह में, प्राण कैसे पले,
बल निखरता नहीं, संयमन के बिना।
क्या करेगा यहाँ, अब अकेला चना,
दल उभरता नहीं, संगठन के बिना।
“रूप” कैसे खिले, धूप कैसे मिले?
रवि ठहरता नहीं है, गगन के बिना।
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गुरुवार, 25 मई 2017
बालकविता "फल वाले बिरुए उपजाओ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जब गर्मी का मौसम आता,
सूरज तन-मन को झुलसाता।
तन से टप-टप बहे पसीना,
जीना दूभर होता जाता।
ऐसे मौसम में पेड़ों पर,
फल छा जाते हैं रंग-रंगीले।
उमस मिटाते हैं तन-मन की,
खाने में हैं बहुत रसीले।
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ककड़ी-खीरा औ' खरबूजा,
प्यास बुझाता है तरबूजा।
जामुन पाचन करने वाली,
लीची मीठे रस का कूजा।
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आड़ू और खुमानी भी तो,
सबके ही मन को भाते हैं।
आलूचा और काफल भी तो,
हमें बहुत ही ललचाते हैं।
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कुसुम दहकते हैं बुराँश पर,
लगता मोहक यह नज़ारा।
इन फूलों के रस का शर्बत,
शीतल करता बदन हमारा।
![]()
आँगन और बगीचों में कुछ,
फल वाले बिरुए उपजाओ।
सुख से रहना अगर चाहते,
पेड़ लगाओ-धरा बचाओ।
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बुधवार, 24 मई 2017
दोहे "मन है सदा जवान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
काम-काम को छल रहा, अब तो आठों याम।।
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लटक रहे हैं कबर में, जिनके आधे पाँव।
वो ही ज्यादा फेंकते, इश्क-मुश्क के दाँव।।
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मन की बात न मानिए, मन है सदा जवान।
तन की हालत देखिए, जिसमें भरी थकान।।
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नख-शिख को मत देखिए, होगा हिया अशान्त।
भोगवाद को त्याग कर, रक्खो मन को शान्त।।
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रोज फेसबुक पर लिखो, अपने नवल विचार।
अच्छी सूरत देख कर, तज दो मलिन विकार।।
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सीख बड़ों से ज्ञान को, छोटों को दो ज्ञान।
जीवन ढलती शाम है, दिन का है अवसान।।
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अनुभव अपने बाँटिए, सुधरेगा परिवेश।
नवयुग को अब दीजिए, जीवन का सन्देश।।
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भरा हुआ है सिन्धु में, सभी तरह का माल।
जो भी जिसको चाहिए, देगा अन्तरजाल।।
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महादेव बन जाइए, करके विष का पान।
धरा और आकाश में, देंगे सब सम्मान।।
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नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...