मौसम ने ली है अँगड़ाई। गेहूँ की बालियाँ सुखाने, पछुआ पश्चिम से है आई।। पर्वत का हिम पिघल रहा है, निर्झर बनकर मचल रहा है, जामुन-आम-नीम गदराये, फिर से बगिया है बौराई। गेहूँ की बालियाँ सुखाने, पछुआ पश्चिम से है आई।। ![]() रजनी में चन्दा दमका है, पूरब में सूरज चमका है, फुदक-फुदककर शाखाओं पर, कोयलिया ने तान सुनाई। गेहूँ की बालियाँ सुखाने, पछुआ पश्चिम से है आई।। वन-उपवन की शान निराली, चारों ओर विछी हरियाली, हँसते-गाते सुमन चमन में, भँवरों ने गुंजार मचाई। गेहूँ की बालियाँ सुखाने, पछुआ पश्चिम से है आई।। सरसों का है रूप सलोना, कितना सुन्दर बिछा बिछौना, मधुमक्खी पराग लेने को, खिलते गुंचों पर मँडराई। गेहूँ की बालियाँ सुखाने, पछुआ पश्चिम से है आई।। -- |
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रविवार, 28 फ़रवरी 2021
गीत "मौसम ने ली है अँगड़ाई" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 27 फ़रवरी 2021
गीत "गाता है ऋतुराज तराने" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
वासन्ती मौसम आया है, |
शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021
बालकविता "आयी रेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
धक्का-मुक्की रेलम-पेल। आयी रेल-आयी रेल।। ![]() इंजन चलता सबसे आगे। पीछे -पीछे डिब्बे भागे।। हार्न बजाता, धुआँ छोड़ता। पटरी पर यह तेज दौड़ता।। ![]() जब स्टेशन आ जाता है। सिग्नल पर यह रुक जाता है।। जब तक बत्ती लाल रहेगी। इसकी जीरो चाल रहेगी।। हरा रंग जब हो जाता है। तब आगे को बढ़ जाता है।। ![]() बच्चों को यह बहुत सुहाती। नानी के घर तक ले जाती।। सबके मन को भाई रेल। आओ मिल कर खेलें खेल।। धक्का-मुक्की रेलम-पेल। आयी रेल-आयी रेल।। |
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021
गीत "आँसू यही बताते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
--दुख आने पर नयन
बावरे,
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2021
ग़ज़ल "आँखें कर देतीं इज़हार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आँखें कर देतीं इज़हार -- नफरत-चाहत की भाषा का आँखों में संचित भण्डार -- बिन काग़ज़ के, बिना क़लम के लिख देतीं सारे उद्गार -- नहीं छिपाये छिपता सुख-दुख करलो चाहे यत्न हजार -- पावस लगती रात अमावस हो जातीं जब आँखें चार -- नहीं जोत जिनकी आँखों में उनका है सूना संसार -- 'रूप' इन्हीं से जीवन का है आँखें कुदरत का उपहार -- |
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021
गीत "आँसू की कथा-व्यथा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
जब खारे आँसू आते हैं। अन्तस में उपजी पीड़ा की, पूरी कथा सुनाते हैं।। -- धीर-वीर-गम्भीर इन्हें, चतुराई से पी लेते हैं, राज़ दबाकर सीने में, अपने लब को सी लेते हैं, पीड़ा को उपहार समझ, चुपचाप पीर सह जाते हैं। अन्तस में उपजी पीड़ा की, पूरी कथा सुनाते हैं।। -- चंचल मन है, भोलातन है, नयन बहुत मतवाले हैं, देख रहे दुनियादारी को, इनके खेल निराले हैं, उनसे नेह हमेशा होता, जो आँखों को भाते हैं। अन्तस में उपजी पीड़ा की, पूरी कथा सुनाते हैं।। -- मन के नभ पर जब, बादल की सूरत गहराती है, आँखों के दर्पण में, उसकी मूरत आ जाती है, जैसी होती मन की हालत, वैसा “रूप” दिखाते हैं। अन्तस में उपजी पीड़ा की, पूरी कथा सुनाते हैं।। -- |
सोमवार, 22 फ़रवरी 2021
गीत "सत्य-अहिंसा की मैं अलख जगाऊँगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
उस पर मैं कलम चलाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे को बढ़ता जाऊँगा।। -- मैं कभी वक्र होकर घूमूँ, हो जाऊँ सरल-सपाट कहीं। मैं स्वतन्त्र हूँ, मैं स्वछन्द हूँ, मैं कोई चारण भाट नहीं। फरमाइश पर नहीं लिखूँगा, गीत न जबरन गाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे को बढ़ता जाऊँगा।। -- भावों की अविरल धारा में, मैं डुबकी खूब लगाऊँगा। शब्दों की पतवार थाम, मैं नौका पार लगाऊँगा। घूम-घूम कर सत्य-अहिंसा की मैं अलख जगाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे बढ़ता जाऊँगा।। -- चाहे काँटों की शय्या हो, या नर्म-नर्म हो सेज सजे। सारंगी का गुंजन सुनकर, चाहे ढोलक-मृदंग बजे। अत्याचारी के दमन हेतु, शिव का डमरू बन जाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे बढ़ता जाऊँगा।। -- |
रविवार, 21 फ़रवरी 2021
गीत "सत्य कहने में झमेला हो गया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मधुर केला भी कसैला हो गया है।। -- लाज कैसे अब बचायेगी की अहिंसा, पल रही चारों तरफ है आज हिंसा सत्य कहने में झमेला हो गया है। मधुर केला भी कसैला हो गया है।। -- अब किताबों में सजे हैं ढाई आखर, सिर्फ कहने को बचे हैं नाम के घर, आदमी कितना अकेला हो गया है। मधुर केला भी कसैला हो गया है।। -- इंसान के अब दाँत पैने हो गये हैं. मनुज के सिद्धान्त सारे खो गये हैं, बस्तियों का ढंग बनैला हो गया है। मधुर केला भी कसैला हो गया है।। -- प्रीत की अब आग ठण्डी हो गयी है, पीढ़ियों की सोच गन्दी हो गयी है, सभ्यता का रूप मैला हो गया है। मधुर केला भी कसैला हो गया है।। -- |
शनिवार, 20 फ़रवरी 2021
दोहागीत "फीके हैं त्यौहार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- बात-बात पर हो रही, आपस में तकरार। भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।। (१) बेकारी में भा रहा, सबको आज विदेश। खुदगर्ज़ी में खो गये, ऋषियों के सन्देश।। कर्णधार में है नहीं, बाकी बचा जमीर। भारत माँ के जिगर में, घोंप रहा शमशीर।। आज देश में सब जगह, फैला भ्रष्टाचार। भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।। (२) आपाधापी की यहाँ, भड़क रही है आग। पुत्रों के मन में नहीं, माता का अनुराग।। बड़ी मछलियाँ खा रहीं, छोटी-छोटी मीन। देशनियन्ता पर रहा, अब कुछ नहीं यकीन।। छल-बल की पतवार से, कैसे होंगे पार, भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।। (३) ओढ़ लबादा हंस का, घूम रहे हैं बाज। लूट रहे हैं चमन को, माली ही खुद आज।। खूनी पंजा देखकर, सहमे हुए कपोत। सूरज अपने को कहें, ये छोटे खद्योत।। मन को अब भाती नहीं, वीणा की झंकार। भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।। (४) जब हो सबका साथ तो, आता तभी विकास। महँगाई के दौर में, टूट रही है आस।। कोरोना ने हर लिया, जीवन का सुख-चैन। समय पुराना खोजते, लोगों के अब नैन।। आशाएँ दम तोड़ती, फीके हैं त्यौहार। भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।। (५) कुनबेदारी ने हरा, लोकतन्त्र का 'रूप'। आँगन में आती नहीं, सुखद गुनगुनी धूप।। दल-दल के अब ताल में, पसरा गया है पंक। अब वो ही राजा हुए, कल तक थे जो रंक।। जन-जन का हो उन्नयन, मन में यही विचार। भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।। -- |
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021
दोहे "कीर्तिमान सब ध्वस्त" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
--कोरोना के काल
में, ऐसी मिली शिकस्त। |
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021
गीत "मोहक रूप बसन्ती छाया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
फिर से अपने खेत में। सरसों ने पीताम्बर पाया, फिर से अपने खेत में।। -- हरे-भरे हैं खेत-बाग-वन, पौधों पर छाया है यौवन, झड़बेरी ने 'रूप' दिखाया, फिर से अपने खेत में।। -- नये पात पेड़ों पर आये, टेसू ने भी फूल खिलाये, भँवरा गुन-गुन करता आया, फिर से अपने खेत में।। -- धानी-धानी सजी धरा है, माटी का कण-कण निखरा है, मोहक रूप बसन्ती छाया, फिर से अपने खेत में।। -- पर्वत कितना अमल-धवल है, गंगा की धारा निर्मल है, कुदरत ने सिंगार सजाया, फिर से अपने खेत में।। -- |
बुधवार, 17 फ़रवरी 2021
दोहे "सिंह बने शृंगाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021
गीत "बज उठी वीणा मधुर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...