खल रही विदेश को, देश की स्वतन्त्रता। छल रही स्वदेश को, देश की स्वतन्त्रता।। खा रहे हैं देश की, गा रहे विदेश की, खिल्लियाँ उड़ा रहे हैं, भारतीय वेश की, पनप रही है दासता, सिसक रही स्वतन्त्रता। छल रही स्वदेश को, देश की स्वतन्त्रता।। बेड़ियाँ पड़ीं हैं, देवनागरी के पाँव में, बिलख रहे सपूत, आतताइयों के गाँव में, पंगु बन के चल रही है, देश की स्वतन्त्रता। छल रही स्वदेश को, देश की स्वतन्त्रता।। पान भी वही है और, पानदान भी वही, बागडोर जिनके हाथ, खानदान भी वही, फिर है क्यों थकी हुई, स्वदेश की स्वतन्त्रता। छल रही स्वदेश को, देश की स्वतन्त्रता।। |
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मंगलवार, 14 अगस्त 2012
"देश की स्वतन्त्रता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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swatantrata diwas par hardik shubhkaamna! badhiya kavita
जवाब देंहटाएंस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई..सुन्दर गीत..
जवाब देंहटाएंहालात की सच्ची तस्वीर खींची है.
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना, स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएं--- शायद आपको पसंद आये ---
1. Facebook Recommendation Bar ब्लॉगर पर
2. चाँद पर मेला लगायें और देखें
3. गुलाबी कोंपलें
बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंगीत के शब्द शब्द बता रहे हैं साफ साफ
कितना छल रही है हमको ये स्वतंत्रता !
बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
सादर
सुदृढ़ विकास का आधार है स्वतन्त्रता।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अनुपम प्रस्तुति बधाई आपको
जवाब देंहटाएंएकदम सच्ची बात
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया....
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाये
एकदम सच्ची बात कहती हुई बहुत ही अच्छी रचना !!!
जवाब देंहटाएंदेश की वास्तविक स्वतंत्रता की पहचान के लिए के लिए सांस्कृतिक मूल्यों की पैठ जरूरी है...
जवाब देंहटाएं