कितनी जल्दी बदल गया सब। नहीं रहा पहले जैसा अब।। नाती-पोते हँसी उड़ाते, कठिन बुढ़ापा आया जब। दाँत गये मुख हुआ पोपला, सूखा चेहरा, रूखे लब। पहन लिया आँखों ने चश्मा, कुदरत का है खेल ग़ज़ब। पीले पत्तों को दुनिया में, याद बहुत आता अब रब। जीवन की है यही कहानी, कोई नहीं इसमें अचरज। “रूप” गया यौवन के संग में, चाल समय की बहुत अजब। |
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सोमवार, 6 अगस्त 2012
"ग़ज़ल-खेल समय का बहुत अजब" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंक्षमा करियेगा गुरु जी -
इस नादान शिष्य की यह गुस्ताखी ||
अजब-गजब अंदाज है, दिल तो है बेचैन |
चैन सजा के होंठ पर, सजा सजा सा सैन |
सजा सजा सा सैन, कहाँ रक्खी बत्तीसी |
हास्य-व्यंग पर कसक, कसक निकलेगी खीसी |
माना उम्रदराज, देह घेरे बीमारी |
फिर भी करिए नाज, अभी भी बची खुमारी ||
वाह:बहुत सुन्दर..अजब-गजब अंदाज है..आभार
जवाब देंहटाएंसच! समय सबकुछ कब, कैसे बदल देता है...पता ही नहीं चलता..!
जवाब देंहटाएंएक गीत की पंक्ति याद आ गयी..
~आदमी ठीक से देख पाता नहीं...और पर्दे पे मंज़र बदल जाता है...~
सादर !
चाल समय की सबसे अनूठी
जवाब देंहटाएंदिल ने जब मान लिया,आ ही गया बुढापा
जवाब देंहटाएंगले में कंठी हाथ माला,शुरू करे अब जापा,,,,,
सुंदर प्रस्तुति,,,,,
RECENT POST...: जिन्दगी,,,,
जीवन चलायमान है ही
जवाब देंहटाएंwaakai ajab chaal hai samay kee
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती कविता।
जवाब देंहटाएंसमय की चाल बदल देती है हाल !
जवाब देंहटाएंbahut sahi likhe.....
जवाब देंहटाएंसत्यता का चित्रण करती सुंदर रचना | आभार |
जवाब देंहटाएंसबको गुजरना पड़ेगा इस राह से ........सुंदर रचना | आभार |
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