कथितरूप से कह रहे, अपने को भगवान।।
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मन में तो है कलुषता, होठों पर हरि नाम।
भरे पड़े हैं जगत में, कितने आशाराम।।
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चिड़ियों पर हैं झपटते, बन कर भोले बाज।
अबलाओं की कपट से, लूट रहे हैं लाज।।
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क्यों सन्तों की माँद में, भरे हुए हथियार।
उन्हें सुरक्षा की भला, कैसी है दरकार।।
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डर लगता सरकार को, इनका देख वजूद।
साधन भोग-विलास के, महलों में मौजूद।।
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जाल फेंकते हो जहाँ, बनकर लाखों शिष्य।
अन्धकार से है भरा, समझो वहाँ भविष्य।।
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लिए कटोरा भीख का, बने हुए कंगाल।
लेकिन सन्त-महन्त हैं, सबसे मालामाल।।
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बुधवार, 31 मई 2017
दोहे "होठों पर हरि नाम" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंमीडिया के अंध भक्त हो तुम। कुछ अपने दिमाग का भी इस्तेमाल कर लिया करो कभी।
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