पत्रकारिता दिवस पर, होता है अवसाद।
गुणा-भाग तो खूब है, मगर नहीं गुणवाद।।
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पत्रकारिता में लगे, जब से हैं मक्कार।
छँटे हुओं की नगर के, तब से है जयकार।।
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समाचार के नाम पर, ब्लैकमेल है आज।
विज्ञापन का चल पड़ा, अब तो अधिक रिवाज।।
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पीड़ा के संगीत में, दबे खुशी के बोल।
देश-वेश-परिवेश में, कौन रहा विष घोल।।
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बैरी को तो मिल गये, घर बैठे जासूस।
सच्ची खबरों के लिए, देनी पड़ती घूस।।
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ख़बरें अब साहित्य की, हुई पत्र से लुप्त।
सामाजिकता हो रही, इसीलिए तो सुप्त।।
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मिर्च-मसाला झोंक कर, छाप रहे अखबार।
हत्या और बलात् की, ख़बरों की भरमार।।
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पड़ी बेड़ियाँ पाँव में, हाथों में जंजीर।
सच्चाई की हो गयी, अब खोटी तकदीर।।
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आँगन-वन के वृक्ष अब, हुए सुखकर ठूठ।
सच्चाई दम तोड़ती, जिन्दा रहता झूठ।।
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जिसमें पूरा तुल सके, नहीं रही वो तोल।
अब तो कड़वे बोल का, नहीं रहा कुछ मोल।।
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मंगलवार, 30 मई 2017
दोहे "पत्रकारिता दिवस" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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