कम्प्यूटर बन गई जिन्दगी, अन्तरजाल हुआ है तन।
जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।।
जंगल लगता बहुत सुहाना, पर्वत अच्छे लगते हैं,
प्यारी-प्यारी बातें करते, बच्चे सच्चे लगते हैं,
सुन्दर-सुन्दर सुमनों वाला, लगता प्यारा ये उपवन।
जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।।
सुख की बातें-दुख की बातें, बेबाकी से देते हैं,
भावों के सम्प्रेषण से हम, अपना मन भर लेते हैं.
आभासी दुनिया में मिलता, हमको कितना चैन-अमन।
जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।।
ग़ाफ़िल, रविकर, उड़नतश्तरी, सुरभित सुमन खिलाते हैं,
उल्लू और मयंक निशा में, विचरण करने आते हैं,
पंकहीन से कमल सुशोभित, करते बगिया और चमन।
जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।।
ताऊ कभी-कभी दिख जाता, सुस्ती सारी दूर हुई,
मगर फेसबुक के आगे, ब्लॉगिंग बिल्कुल मज़बूर हुई,
अदा-सदा, वन्दना-कनेरी, महकाती जातीं उपवन।
जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।।
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बुधवार, 10 मई 2017
गीत "अन्तरजाल हुआ है तन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंजालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।।
जवाब देंहटाएंआभासी दुनिया में मिलता, हमको कितना चैन-अमन।
आभासी दुनिया में भी एक अलग तरह का सुकून छुपा है ........
सच है जिंदगी के हिस्सा बन गया जाल जगत
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-05-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2630 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं