-- हो गया मौसम गरम, सूरज अनल बरसा रहा। गुलमोहर के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। -- दर्द-औ-ग़म अपना छुपा, हँसते रहो हर हाल में, धैर्य मत खोना कभी, विपरीत काल-कराल में, चहकता कोमल सुमन, सन्देश देता जा रहा। गुलमोहर के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। -- घूमता है चक्र, दुख के बाद, सुख भी
आयेगा, कुछ दिनों के बाद बादल, नेह भी बरसायेगा, ग्रीष्म ही तरबूज, ककड़ी और खीरे ला रहा। गुलमोहर के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। -- सर्दियों के बाद तरु, पत्ते पुराने छोड़ता, गर्मियों के वास्ते, नवपल्लवों को ओढ़ता, पथिक को छाया मिले, छप्पर अनोखा छा रहा। गुलमोहर
के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। -- |
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गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
गुलमोहर गीत "पथिक को छाया मिले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 24 अप्रैल 2024
दोहागीत "सत्याग्रह की आड़ में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- चिड़िया अपने नीड़ में, करती करुण पुकार। सत्याग्रह की आड़ में, राज करें मक्कार।। ।1। आम जरूरत का हुआ, मँहगा सब सामान। ऐसी हालत देख कर, जनता है हैरान।। नेता रहते ठाठ से, मरते हैं निर्दोष। पहन केंचुली हंस की, गिना रहे गुण-दोष।। तेल कान में डाल कर, सोई है सरकार। सत्याग्रह की आड़ में, राज करें मक्कार।। ।2। बातें बहुत लुभावनी, नहीं इरादे नेक। मछुआरे तालाब में, जाल रहे हैं फेंक।। सब्जी और अनाज के, बढ़े हुए हैं भाव। अब तक भी आया नहीं, कीमत में ठहराव।। निर्धन जनता के लिए, महँगाई उपहार। सत्याग्रह की आड़ में, राज करें मक्कार।। ।3। सबको अपनी ही पड़ी, जाये भाड़ में देश। जनता को भड़का रहे, भर साधू का भेष।। जनसेवक करने लगे, जनता का आखेट। घोटाले करके भरें, मोटे अपने पेट।। बात-बात में हो रही, आपस में तकरार। सत्याग्रह की आड़ में, राज करें मक्कार।। ।4। अपने झण्डे के लिए, डण्डे रहे सँभाल। हालत अपने देश की, आज हुई विकराल।। माँगा पानी जब कभी, लपटें आयीं पास। जलते होठों की यहाँ, कौन बुझाये प्यास।। कदम-कदम पर राह में, सुलग रहे अंगार। सत्याग्रह की आड़ में, राज करें मक्कार।। ।5। शाखा पर बैठा हुआ, पाखी गाता गीत। कैसे उसका सुर सधे, बिगड़ गया संगीत।। जनता के ही तन्त्र में, जनता की है मात। धूप “रूप” की ढल गयी, आयी काली रात। नौका लहरों में फँसी, बेबस खेवनहार। सत्याग्रह की आड़ में, राज करें मक्कार।। -- |
मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
दोहे-भूमिदिवस "धरती का सिंगार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- धरा-दिवस पर कीजिए, यही
प्रतिज्ञा आज। भू पर पेड़ लगाइए, जीवित
रहे समाज।१। -- हरितक्रान्ति से ही मिटे, धरती का
सन्ताप। पर्यावरण बचाइए, बचे
रहेंगे आप।२। -- पेड़ लगाकर कीजिए, अपने पर
उपकार। करो हमेशा यत्न से, धरती का
सिंगार।३। -- खाली रहे न कहीं भी, अब
खेतों की मेढ़। सड़क किनारे मित्रवर, लगा
दीजिए पेड़।४। -- प्राणवायु हमको सदा, देते पीपल-नीम। दुनियाभर में हैं यही, सबसे
बड़े हकीम।५। -- बातों से होता नहीं, धरा-दिवस
साकार। यत्न करोगे तो तभी, बेड़ा
होगा पार।६। -- धरती माता तुल्य है, देती
प्यार-अपार। संचित है सबके लिए, धरती
में भण्डार।७। -- |
सोमवार, 22 अप्रैल 2024
दोहागीत "भाई-भाई में नहीं पहले जैसा प्यार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दोहा गीत
--
बात-बात पर हो रही, आपस में तकरार।भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(१)
बेकारी में भा रहा, सबको आज विदेश।
खुदगर्ज़ी में खो गये, ऋषियों के सन्देश।।
कर्णधार में है नहीं, बाकी बचा जमीर।
भारत माँ के जिगर में, घोंप रहा शमशीर।।
आज देश में सब जगह, फैला भ्रष्टाचार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(२)
आपाधापी की यहाँ, भड़क रही है आग।
पुत्रों के मन में नहीं, माता का अनुराग।।
बड़ी मछलियाँ खा रहीं, छोटी-छोटी मीन।
देशनियन्ता पर रहा, अब कुछ नहीं यकीन।।
छल-बल की पतवार से, कैसे होंगे पार,
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(३)
ओढ़ लबादा हंस का, घूम रहे हैं बाज।
लूट रहे हैं चमन को, माली ही खुद आज।।
खूनी पंजा देखकर, सहमे हुए कपोत।
सूरज अपने को कहें, ये छोटे खद्योत।।
मन को अब भाती नहीं, वीणा की झंकार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(४)
जब हो सबका साथ तो, आता तभी विकास।
महँगाई के दौर में, टूट रही है आस।।
कोरोना ने हर लिया, जीवन का सुख-चैन।
समय पुराना खोजते, लोगों के अब नैन।।
आशाएँ दम तोड़ती, फीके हैं त्यौहार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(५)
कुनबेदारी ने हरा, लोकतन्त्र का 'रूप'।
आँगन में आती नहीं, सुखद गुनगुनी धूप।।
दल-दल के अब ताल में, पसरा गया है पंक।
अब वो ही राजा हुए, कल तक थे जो रंक।।
जन-जन का हो उन्नयन, मन में यही विचार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
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