खो
चुके सब, कुछ नहीं अब, शेष खोने के लिए।
कहाँ
से लायें धरा, अब बीज बोने के लिए।।
सिर्फ
चुल्लू में सिमटकर, रह गई गंगा यहाँ,
अब
कहाँ जायें बताओ, पाप धोने के लिए।
पत्थरों
के साथ रह कर, हो गये हैं संगे-दिल,
अब
नहीं ज़ज़्बात बाकी, रुदन रोने के लिए।
पर्वतों
से टूट कर,
बहने लगे जब धार में,
चल
पड़े हैं सफर पर, भगवान होने के लिए।
"रूप"
था हमने तराशा, पारखी के वास्ते,
किन्तु
कोई है नहीं, माला पिरोने के लिए।
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रविवार, 14 दिसंबर 2014
"ग़ज़ल-कहाँ जायें बताओ पाप धोने के लिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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पत्थरों के साथ रह कर, हो गये हैं संगे-दिल,
जवाब देंहटाएंअब नहीं ज़ज़्बात बाकी, रुदन रोने के लिए।
~~~~~~बेहद अच्छी रचना
बहुत सुन्दर दोहे रचना !
जवाब देंहटाएंपाखी (चिड़िया )
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंपर्वतों से टूट कर, बहने लगे जब धार में,
चल पड़े हैं सफर पर, भगवान होने के लिए।
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जवाब देंहटाएंफ्री ऑनलाइन पैसा कमाए business kaise kren share marekt free training in hindi
Nicely written Gazal, Shastri ji . Bahut sundar !
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