बापू
जी के देश में, बढ़ने लगे दलाल।
कब
तक बीनेंगे इसे, पूरी काली दाल।।
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मैदानी
भूभाग की, ठहर गयी रफ्तार।
सरदी
लेकर आ गयी, कुहरे का उपहार।।
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कंकरीट
के महल हैं, वन का हुआ कटाव।
ईंधन
मिलता है नहीं, कैसे जलें अलाव।।
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आजादी
के बाद तो, बिगड़े हैं हालात।
बचपन
कचरा बीनता, लज्जा की है बात।।
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अपने
प्यारे देश में, निर्धन हुए विपन्न।
राजनीति
करके बने, नेता जी सम्पन्न।।
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मक्कारी
पामाल है, खुद्दारी बेहाल।
कल
तक जो बेकार थे, अब हैं मालामाल।।
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जिनका
केवल रह गया, रिश्वतखोरी काम।
वो जनसेवक
कर रहे, सत्ता को बदनाम।।
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रामराज
के नाम पर, राम नाम की लूट।
राम
और रहमान में, डाल रहे हैं फूट।।
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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014
"दोहे-बापू जी के देश में बढ़ने लगे दलाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शनिवार 20 दिसंबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंwaah bahut sundar dohe hardik badhai
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया..
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