धूप नहीं नभ में खिली, अंग ठिठुरता जाय।
सर्दी में दे ऊर्जा, गर्म-गर्म इक चाय।१।
आग सेंकने का चढ़ा, देखो कैसा चाव।
सर्दी में अच्छा लगे, जलता हुआ अलाव।२।
ठिठुरन से जमने लगा, सारे तन का खून।
शीतल ऋतु में आग से, मिलता बहुत सुकून।३। ![]()
बच्चे-बूढ़े आग को, सेंक रहे हैं आज।
भीषण शीत-प्रकोप से, ठिठुरा सकल समाज।४।
पहरा देते रातभर, कभी न मानें हार।
आग सेंकने आ गये, अब ये चौकीदार।५।
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सोमवार, 8 दिसंबर 2014
"दोहे-जलता हुआ अलाव" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सर्दी में दे ऊर्जा, गर्म-गर्म इक चाय
जवाब देंहटाएंसर्दी में अच्छा लगे, जलता हुआ अलाव
..बहुत सुन्दर ..सटीक सामयिक प्रस्तुति
आ गयी ठण्ड ....
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के - चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंबढ़िया भाव गंगा अनवरत प्रवहमान है इस रचना में।
जवाब देंहटाएंपहरा देते रातभर, कभी न मानें हार।
आग सेंकने आ गये, अब ये चौकीदार।५।
सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सामयिक सचित्र प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंविस्मित हूँ !
सुंदर और सामयिक दोहे...आभार
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