लघु-कथा
बात लगभग 40 साल पुरानी है। उन दिनों नेपाल में मेरा हम-वतन प्रीतम लाल पहाड़ में खच्चर लादने का काम करता था। इनका परिवार भी इनके साथ ही पहाड़ में किराये के झाले में रहता था।
कुछ दिनों के बाद इनका अपने घर नजीबाबाद के पास गाँव में जाने का कार्यक्रम था। अतः रास्ते में मेरा घर होने के कारण मिलने के लिए आये।
औपचारिकतावश् चाय नाश्ता बनाया गया। प्रीतम की लड़की चाय बना कर लाई। परन्तु उसने चाय को बना कर छाना ही नही।
पहले सभी को निथार कर चाय परोसी गई। नीचे बची चाय को उसने अपने छोटे भाई बहनों के कपों में उडेल दिया।
सभी लोग चाय पीने लगे।
लेकिन प्रीतम के बच्चों ने चाय पीने के बाद चाय पत्ती को भी मजा लेकर खाया।
ये लोग अब बस से जाने की तैयारी में थे कि प्रीतम ने मुझसे कहा कि डॉ. साहब कल से भूखे हैं। हमें 2-2 रोटी तो खिला ही दो।
मैंने कहा- ‘‘जरूर।’’
श्रीमती ने पराँठे बनाने शुरू किये तो मैंने कहा कि इनके लिए रास्ते के लिए भी पराँठे रख देना।
अब प्रीतम और उसके परिवार ने पराँठे खाने शुरू किये। वो सब इतने भूखे थे कि पेट जल्दी भरने के चक्कर में दो पराँठे एक साथ हाथ में लेकर डबल-टुकड़े तोड़-तोड़ कर खाने लगे।
उस दिन मैंने देखा कि भूख और निर्धनता क्या होती है।
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भूख महसूस करने वाले ही वास्तव में भोजन का सम्मान करते हैं।
जवाब देंहटाएंभूख की अतिशयता हर भूखे व्यक्ति को असभ्य दर्शाती है
साथ ही भरपूर भोजन की व्यवस्था करने वाले मनुष्य को दिव्य बनाती है।
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सभ्य और सुसंस्कृत होने के लिए ऐसी ही लघु कथाओं को जन्म देने वाले परोपकारी व्यवहार को धारण करना होता है।
बहुत बढियाँ से भूख को दर्शाया है ,भूख ऐसी ही होती है
जवाब देंहटाएंmaarmik
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