जग की पोथी पढ़ते-पढ़ते, सारी उम्र तमाम हो गई। पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, जीवन की अब शाम हो गई।। -- जितना आगे कदम बढ़ाया, मंजिल ने उतना भटकाया, मन के मनके जपते-जपते,
वाणी मुख में जाम हो गई। पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, जीवन की अब शाम हो गई।। -- चिढ़ा रही मुँह, आज भव्यता, सुबक-सुबक, रो रही नव्यता, गीत-गज़ल को रचते-रचते, नैतिकता नीलाम हो गई। पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, जीवन की अब शाम हो गई।। -- स्वर की लहरी मन्द हो गई, नई नस्ल स्वच्छन्द हो गई, घर की बातें रही न घर में, दुनियाभर में आम हो गई पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, जीवन की अब शाम हो गई।। -- दर्शन-मेला कभी न भाया, रंग-ढंग कुछ रास न आया, फूटी ढोलक मढ़ते-मढ़ते नेक-नीति बदनाम हो गयी। पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, जीवन की अब शाम हो गई।। मन है कितना कलुषित पापी, कदमताल में आपाधापी, अपनों से जब बिछुड़ गया तो- दुनिया ललित-ललाम हो गयी। पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, जीवन की अब शाम हो गई।। -- |
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शनिवार, 21 मई 2022
गीत "जीवन की अब शाम हो गई" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शुक्रवार, 20 मई 2022
गीत "बतलाओ तो जीवन क्या है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जीवन जीने की आशा है। जीवन जग की संभाषा है, मत समझो खेल तमाशा है।। जिसने जग में जीवन पाया, आया अदभुत् सा गान लिए। मुस्कान लिए अरमान लिए, जग में जीने की शान लिए। जब उससे हमने यह पूछा- बतलाओ तो जीवन क्या है? बोला दुनिया परिभाषा है, सारा जीवन एक भाषा है। जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है।। -- अपने पथ पर बढ़ते-बढ़ते, जग की पोथी पढ़ते-पढ़ते। इक नीड़ बसाया जब उसने, संसार सजाया जब उसने। जब उससे हमने यह पूछा- बतलाओ तो जीवन क्या है? वह बोला जीवन आशा है, जीवन तो मधुर सुधा सा है। जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है।। -- कुछ श्वेत-श्याम केशों वाले, अनुभव के परिवेशों वाले। अलमस्त पौढ़ और मतवाले, जीवन बगिया के रखवाले। बूढ़े बरगद से जब पूछा- बतलाओ तो जीवन क्या है? बोला जीवन अभिलाषा है, जीवन तो एक पिपासा है। जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है।। -- जब आनन दन्त-विहीन हुआ, तन सूख गया,
बल क्षीण हुआ। जब पीत बन गयी हरियाली, मुरझाई जब डाली-डाली। अब मैंने उससे यह पूछा- अब बतलाओ जीवन क्या है? तब उसने अपना मुँह खोला, बस धीमे से ही यह बोला। जीवन तो एक निराशा है, जीवन तो बहुत जरा सा है। जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है।। -- |
गुरुवार, 19 मई 2022
दोहे "जीवन के हैं खेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बात-बात में निकलते, साला-साली शब्द। देवनागरी हो रही, देख-देख निःशब्द।। अगर मनुज के हृदय का, मर जाये शैतान।, फिर से जीवित धरा पर, हो जाये इंसान।। कमी नहीं कुछ देश में, भरे हुए गोदाम। खास मुनाफा खा रहे, परेशान हैं आम।। बढ़ते भ्रष्टाचार को, देगा कौन लगाम। जनसेवक को चाहिए, चिलगोजे बादाम।। आज पुरानी नीँव के, खिसक रहे आधार। नवयुग की इस होड़ में, बिगड़ गये आचार।। नियमन आवागमन का, किसी और के हाथ। जाना तो तय हो गया, आने के ही साथ।। प्यार और नफरत यहाँ, जीवन के हैं खेल। एक बढ़ाता द्वेष को, एक कराता मेल।। |
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नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...