अन्तर रखने वालों से, मेरा अन्तर नही मिलता है। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। जीवन कभी कठोर कठिन है, कभी सरल सा है, भोजन अमृत-तुल्य कभी है, कभी गरल सा है, माली बिना किसी उपवन में, फूल नही खिलता हैं। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। सावन मे भी कभी-कभी सूखा भी होता है, खाना खाकर कभी, उदर भूखा भी होता है, काँटे जिनकी करें सुरक्षा उनका तन नही छिलता है। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। नर्म-नर्म बिस्तर में, सुख की नींद नही आती है, किन्तु श्रमिक को कंकड़ की ढेरी पर आ जाती है, तप और श्रम से पत्थर का भी हृदय पिघलता है। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। |
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शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
‘‘जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सुंदर संदेश से युक्त बढिया रचना !!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संदेश-उम्दा विचार!!
जवाब देंहटाएंएक बहतरीन पेगाम, बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
पत्ते पत्ते, बूटे बूटे की सिफत बता दी आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया गीत..
बेहतरीन नज़्म है,
जवाब देंहटाएंमुबारकवाद!
सुंदर रचना!
जवाब देंहटाएंIt is a good poem.
जवाब देंहटाएंcongretulation.
बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
आपकी रचनायें सरल शब्दों में बढिया विचार दे जाती हैं.
जवाब देंहटाएंati sundar
जवाब देंहटाएंkya baat hai ?
जवाब देंहटाएंbahut khoob !
bahut umda !
________________badhaai !
lajawaab rachna..........jeevan darshan karati hai.
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