फिर चली पुरवाई बादल छा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। पेड़ के नीचे अचानक बैठ जाना, गीत लिखना और उनको गुनगुनाना, शब्द बनकर छन्द लय को पा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। झूमते भौंरो का गुंजन-गान गाना, मस्त होकर सुमन का सौरभ लुटाना, फूल-पत्ते भी नजर को भा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। झाँक कर खिड़की से उनका मुस्कुराना, नजर मिलते ही नजर अपनी झुकाना, नयन में सपने सुहाने छा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। |
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बुधवार, 22 जुलाई 2009
"याद वो मंजर पुराने आ गये हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)"
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bade bhi sukhad pal rahe honge wo jise aapne itane sundar dhang se piroya hai..
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar kavita..
वो पुराने दिन तो शायद वापस नहीं आ सकते....लेकिन आपने पुराणी यादों को जरूर ताज़ा कर दिया...!सूखे फूलों से भी खुशबू आने लगी है...बहुत ही अच्छी रचना....
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी, एक और बेहतरीन कृति, गुस्ताखी माफ़, आजकल आप बोतल पे बोतल(दर्द-ए-गम की) खाली किये जा रहे हो, :-))
जवाब देंहटाएंब्लॉगर मित्रों!
जवाब देंहटाएंसंशोधन करने के चक्कर में-
भूलवश ‘‘याद वो मंजर पुराने आ गये हैं’’ पोस्ट डिलीट हो गयी थी। इसके साथ ही सारी टिप्पणियाँ भी डिलीट हो गयी हैं। इसलिए ‘‘याद वो मंजर पुराने आ गये हैं’’ को दुबारा पोस्ट किया है।
बहुत सुंदर लिखा है आपने...याद आ गया वो मंजर
जवाब देंहटाएंझाँक कर खिड़की से उनका मुस्कुराना,
जवाब देंहटाएंनजर मिलते ही नजर अपनी झुकाना,
नयन में सपने सुहाने छा गये हैं।
याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।।
mujhe to ye bha gayi.bahut hi sundar badhai!
सुन्दर गीत..आपका आभार प्रस्तुत करने का.
जवाब देंहटाएंमयंक जी बहुत सुन्दर रचना है बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी, इतना सुन्दर गीत है कि इसे गुनगुनाने को जी चाहता है...
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत गीत लिखा है आपने शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत और नायाब गीत.
जवाब देंहटाएंरामराम.
behtreen prem geet likha hai.......dil ko choo gaya.
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