वस्ल की शाम महकी महकी सी है वादियों की सवा शौक से आके इस का मज़ा लीजिऐ बन गयी मैं गज़ल आप के सामने जैसे चाहो मुझे आजमा लीजिऐ मय को पी कर अगर दिल मचलने लगे अपना दिल हमें फिर बना लीजिऐ ये बहारों का रंग हुस्न की तश्नगी प्यास नजरों की अपनी बुझा लीजिऐ मैं बयाबां में हूँ खुशनुमा एक कली मुझको जैसे जहाँ हो सजा लीजिऐ कल तलक आरजूयें जो ‘बदनाम’ थीं वस्ल को शाम है दिल लुटा लीजिऐ वादियों-जंगल, कानन, वस्ल-मिलन, मुलाकात, सवा-हवा, मय, शराब तश्नगी-प्यास, बयाबां-जंगल, आरजूयें-इच्छायें |
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रविवार, 19 जुलाई 2009
रूमानी शायर गुरूसहाय भटनागर "बदनाम" की एक ग़ज़ल
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बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है आपने!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गजल.
जवाब देंहटाएंरामराम.
कली सरीखी ग़ज़ल ने हमें लुभा लिया
जवाब देंहटाएंआप भी हमारी टिपण्णी सजा लीजिये
बेहतरीन ग़ज़ल...
यूँ जैसे खुशबू का आबशार हो....
वाह क्या बात है! इस शानदार ग़ज़ल के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंbahut pyaari gazal, hai kya ye kisi gayak duara gai ja chuki hai?
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