वस्ल की शाम महकी महकी सी है वादियों की सवा शौक से आके इस का मज़ा लीजिऐ बन गयी मैं गज़ल आप के सामने जैसे चाहो मुझे आजमा लीजिऐ मय को पी कर अगर दिल मचलने लगे अपना दिल हमें फिर बना लीजिऐ ये बहारों का रंग हुस्न की तश्नगी प्यास नजरों की अपनी बुझा लीजिऐ मैं बयाबां में हूँ खुशनुमा एक कली मुझको जैसे जहाँ हो सजा लीजिऐ कल तलक आरजूयें जो ‘बदनाम’ थीं वस्ल को शाम है दिल लुटा लीजिऐ वादियों-जंगल, कानन, वस्ल-मिलन, मुलाकात, सवा-हवा, मय, शराब तश्नगी-प्यास, बयाबां-जंगल, आरजूयें-इच्छायें गुरूसहाय भटनागर “बदनाम” |
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बहुत ही रूमानी अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंbahut sundar gazal..........aabhar.
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ग़ज़ल.....
जवाब देंहटाएंvery nice!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया !!
जवाब देंहटाएंगुरुसहाय भटनागर जी को इस रचना के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंwaah..bahut khoob!
जवाब देंहटाएंtyping errors हटा दें तो और अच्छी लगेगी ये....
जवाब देंहटाएंग़ज़ल का आनंद बिलकुल निराला है पढने में इसका आनंद मुक्तक से कई गुना जादा है ,
जवाब देंहटाएंग़ज़ल का आनंद बिलकुल निराला है पढने में इसका आनंद मुक्तक से कई गुना जादा है ,
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