आज एक पुरानी नज्म
जिन्दगी और मौत पर भी, हवस है छाने लगी।
आदमी को, आदमी की हवस ही खाने लगी।।
हवस के कारण,
यहाँ
गणतन्त्रता भी सो रही।
दासता सी आज,
आजादी
निबल को हो रही।।
पालिकाओं और सदन में, हवस का ही शोर है।
हवस के कारण,
बशर
लगने लगा अब चोर है।।
उच्च-शिक्षा में अशिक्षा, हवस बन कर पल रही।
न्याय में अन्याय की ही, होड़ जैसी चल रही।।
हबस के साये में ही, शासन-प्रशासन चल रहा।
हवस के साये में ही नर, नारियों को छल रहा।।
डॉक्टरों, कारीगरों को, हवस ने छोड़ा नही।
मास्टरों ने भी हवस से, अपना मुँह मोड़ा नही।।
बस हवस के जोर पर ही, चल रही है नौकरी।
कामचोरों की धरोहर, बन गयी अब चाकरी।।
हवस के बल पर हलाहल, राजनीतिक घोलते।
हवस की धुन में सुखनवर, पोल इनकी खोलते।।
चल पड़े उद्योग -धन्धे, अब हवस की दौड़ में।
पा गये अल्लाह के बन्दे, कद हवस की होड़ में।।
राजनीति अब, कलह और घात जैसी हो गयी।
अब हवस शैतानियत की, आँत जैसी हो गयी।।
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राजनीति अब, कलह और घात जैसी हो गयी।
जवाब देंहटाएंअब हबस शैतानियत की, आँत जैसी हो गयी।।
पहिये वाली कुर्सी तक खाने और खाके गुर्राने की हवस से जुड़ी आज के सन्दर्भ की रचना वाड्रागेट की रचना .बधाई .कृपया हवस कर लें .
bade pate ki bat bade saf lafjo kh aapne ne talkh sacchayee ke tane -bane ko udhed diya.bahut accha
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंलोगों का नैतिक पतन हो गया है..
जवाब देंहटाएंबड़ी सामयिक और प्रभावी रचना।
जवाब देंहटाएंNature has provided everything according to need...not according to greed...
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंआपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 15-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1033 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
अपनी अपनी हड्डी लेकर कुत्ते कोना ढूंढ़ रहे हैं-
जवाब देंहटाएंबढ़िया है गुरु जी-
खा चुकी 'अच्छाइयों' को,'कुम्भकर्णी,यह हविश' |
जवाब देंहटाएं'मानवी संस्कृति' में कितनी भर गयी है यों 'तपिश' ||
very appealing creation.
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति शास्त्री सर !
जवाब देंहटाएं~किस क़दर इंसान है भटका हुआ...
रास्ते खोजा किया...मंज़िलों की खबर नहीं...~
-सादर !!!:)
बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही भावनामई रचना.बहुत बधाई आपको
जवाब देंहटाएंbhinn bhinn prakar ki hawas ko aapne achi tarah darshaaya hai!
जवाब देंहटाएंसभी नंगे है इस हम्माम मे
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