जिन्दगी जिन्दगी पे भारी है
हाड़ धुनने का काम
जारी है
पेट भरता था जो
जमाने का
उसकी खाली पड़ी
पिटारी है
साहुकारों का कर्ज
बाकी है
खत्म होती नहीं
उधारी है
कल तलक जो शिकार होता था
आज खुद बन गया शिकारी
है
आज जीवन में मारामारी है जान अपनी सभी को प्यारी है
जब से गुलशन का वो
बना माली
भूल बैठा गुलों से
यारी है
ताजपोशी हुई है
जिस दिन से
“रूप” पर छा गयी
खुमारी है
|
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जवाब देंहटाएंबढ़िया भाव अभिव्यक्ति शास्त्री जी की :
जिन्दगी जिन्दगी पे भारी है
हाड़ धुनने का काम जारी है
क्या करें जीने की लाचारी है ,
ये आदतन ही खेल ज़ारी है।
veerujan.blogspot.com
जवाब देंहटाएंबढ़िया भाव अभिव्यक्ति शास्त्री जी की :
जिन्दगी जिन्दगी पे भारी है
हाड़ धुनने का काम जारी है
क्या करें जीने की लाचारी है ,
ये आदतन ही खेल ज़ारी है।
उम्र सारी ही यूं गुज़ारी है ,
कोई तो है जो हम पे तारी है।
veerujan.blogspot.com
kabirakhadasaraimen.blogspot.com
बहुत सुन्दर रचना 👌👌
जवाब देंहटाएंजिन्दगी जिन्दगी पे भारी है
हाड़ धुनने का काम जारी है
पेट भरता था जो जमाने का
उसकी खाली पड़ी पिटारी है....
बहुत सुन्दर शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंआज भी कोई होरी गोदान की अधूरी आस लेकर मर रहा है और उसका बेटा गोबर विरासत में उसके मिले क़र्ज़ को चुकाने में अपनी ख्वाहिशों और अपने सपनों को चूर-चूर होते देख रहा है.
चमन का हिफ़ाज़तदां जब सैयाद बन जाए तो परिंदों का क्या हश्र होगा, यह सब जानते हैं.
बहुत सुंदर।
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