जिस उपवन में पढ़े-लिखे हों रोजी को लाचार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। जिनके बंगलों के ऊपर, बेखौफ ध्वजा लहराती, रैन-दिवस चरणों को जिनके, निर्धन सुता दबाती, जिस आँगन में खुलकर होता सत्ता का व्यापार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। मुस्टण्डों को दूध-मखाने, बालक भूखों मरते, जोशी, मुल्ला, पीर, नजूमी, दौलत से घर भरते, भोग रहे सुख आजादी का, बेईमान मक्कार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। गूँज रहीं हैं द्वारे-द्वारे, बेटों की किलकारी, सूखी रोटी खाकर पलतीं, ललनाएँ बेचारी, भेद-भाव बेटा-बेटी में, भेद भरा है प्यार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। |
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मुस्टण्डों को दूध-मखाने,
जवाब देंहटाएंबालक भूखों मरते,
जोशी, मुल्ला, पीर, नजूमी,
दौलत से घर भरते,
भोग रहे सुख आजादी का, बेईमान मक्कार।
उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।।
बिल्कुल सही कहा है आपने! बहुत सुन्दर और सठिक पंक्तियाँ! शानदार रचना प्रस्तुत किया है आपने!
आज के समय डेश और समाज कि जो स्थिति है उस पर आपकी सोच सटीक है ...
जवाब देंहटाएंआपकी रचना कल के साप्ताहिक काव्य मंच पर है ...
अति सुंदर रचना जी धन्यवाद,
जवाब देंहटाएंसहमत हे जी
अति सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसच्चाई से परिपूर्ण ये रचना बहुत अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंबिन इन सबके स्वातन्त्र्य बेकार है।
जवाब देंहटाएंमुझे आपकी इस कविता मे बिलकुल बाबा नागार्जुन वाला तेवर दिखा है ।
जवाब देंहटाएंभोग रहे सुख आजादी का, बेईमान मक्कार।
जवाब देंहटाएंउस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।।
सही कहा शास्त्री जी ये स्वतंत्रता के लायक ही नहीं !
satya ko samne lakar rakh diyaa
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रता का नारा है बेकार---------बिल्कुल सही कहा………कहाँ की स्वतंत्रता ? अभी तक पुरानी मान्यताओ को पकडे खडे हैं त फिर कैसी स्वतंत्रता।
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