हँसता-खिलता जैसा, इन प्यारे सुमनों का मन है। गुब्बारों सा नाजुक, सारे बच्चों का जीवन है।। नन्हें-मुन्नों के मन को, मत ठेस कभी पहुँचाना। नित्यप्रति कोमल पौधों पर, स्नेह-सुधा बरसाना ।। ये कोरे कागज के जैसे, होते भोले-भाले। इन नटखट गुड्डे-गुड़ियों के, होते खेल निराले।। भरा हुआ चंचल अखियों में, कितना अपनापन है। झूम-झूम कर मस्ती में, हँसता-गाता बचपन है।। |
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भरा हुआ चंचल अखियों में,
जवाब देंहटाएंकितना अपनापन है।
झूम-झूम कर मस्ती में,
हँसता-गाता बचपन है।।
Bachchon ke komal man jaisi pyari kavita.
bahut achchi kavita hai.
जवाब देंहटाएंयह प्रयास भी बेहद सफल रहेगा..
जवाब देंहटाएंबच्चों के लिये अनमोल होंगे इसके शब्द शब्द।
जवाब देंहटाएंabhhotpoorva prastuti...!!
जवाब देंहटाएंअगली पुस्तक के लिए बधाई ....
जवाब देंहटाएंकविता बहुत सुन्दर ...
बहुत सुन्दर बच्चों के बचपन की तरह..आभार
जवाब देंहटाएंadarniy shastriji,
जवाब देंहटाएंsundar pustak ke liye bahut-bahut badhai..
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 01- 02- 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
वाक़ई, बहुत प्यारी बाल कविता है शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दरता से बचपन की मनोहारी छवि प्रस्तुत की है ...बधाई ।
जवाब देंहटाएंबड़ी सहजता बरस रही है इस कविता से ,बिलकुल जैसे बच्चों का मन है ...
जवाब देंहटाएंबच्चों की तरह चंचल और प्यारे भावयुक्त रचना... निश्चय ही आपकी कताब सब को पसंद आयेगे... शुभकामनाएं एवं बधाईयाँ...
जवाब देंहटाएंबचपन सी ही प्यारी रचना ...!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई!
जवाब देंहटाएंमंगल कामना के साथ.......साधुवाद!
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी