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बहती अविरल भाव से, निर्मल जल की धार।
सुन्दर सुमनों ने लिया, पानी में आकार।।
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मोती जैसी सुमन से, टपक रही है ओस।
मन को महकाती महक, कर देती मदहोस।।
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हीरे जैसी चमक है, निखरा-निखरा गात।
कितना सुन्दर लग रहा, झरता हुआ प्रपात।।
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नाविक बैठा सोचता, चप्पू लेकर साथ।
अनुपम रचना कर रहा, सारे जग का नाथ।।
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खारे जल का पान कर, मोती देती सीप।
आलोकित जग को करें, आसमान के दीप।।
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माया मालिक की नहीं, कोई पाया जान।
विज्ञानी सब जगत के, हो जाते हैरान।।
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दाता सबका एक है, लेकिन नाम अनेक।
चमत्कार को देखकर, है असमर्थ विवेक।।
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मंगलवार, 4 अगस्त 2015
दोहे "झरता हुआ प्रपात" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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