बचपन जिया अभाव में, कभी न मानी हार।
लेकिन श्रम से पा लिया, जीवन का आधार।१।
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अपनों के सुख के लिए, धुनता रहा शरीर।
लेकिन वो ही घोंपते, सीने में शमशीर।२।
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जीवन भर जिनके लिए, किया रात-दिन काम।
वो ही अब परिवेश में, मचा रहे कुहराम।३।
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नहीं बुढ़ापे में चलें, यौवन जैसे पाँव।
बरगद बूढ़ा हो चला, कब तक देगा छाँव।४।
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मन के नभ से छँट गये, सारे बादल आज।
जो आया वो जायगा, जग का यही रिवाज।५।
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वैसे तो तन में नहीं, कोई भी है रोग।
लेकिन अब जीने नहीं, देंगे अपने लोग।६।
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लेखा-जोखा देख कर, पुर्जे रहा समेट।
भूख कहाँ से अब लगे, भरा हुआ है पेट।७।
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जिस घर के सब लोग हों, खुद हाकिम-हुक्काम।
बोलो उस परिवार में, मुखिया का क्या काम।८।
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कैसे रक्खें सन्तुलन, निकल पड़े ज़ज़्बात।
खाली मन शैतान का, मचा रहा उत्पात।९।
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मन ही मन में घुट रहा, पड़ा अकेला जीव।
वैसा बना मकान है, जैसी डाली नीव।१०।
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मात-पिता तो स्वर्ग को, कब के गये सिधार।
सुलझायेगा कौन अब, उलझ गये हैं तार।११।
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न्यायाधीश जहाँ हुआ, निर्णय से मजबूर।
ख्वाब वहाँ इंसाफ के, समझो चकनाचूर।१२।
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व्यथा जगत की है यही, व्यथा-व्यथा
है मित्र।
ऐसा ही अब हो गया, युग का
चित्र-चरित्र।१३। |
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बुधवार, 12 अगस्त 2015
दोहे "उलझ गये हैं तार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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