कुटिलता के भाव को पहचानते हैं,
शत्रुता दिल में नहीं हम ठानते हैं।
वो बहुत खुलकर चलाते तीर अपने,
वार हम चुपचाप सहना जानते हैं।।
हम सुमन के हैं हितैषी, गन्ध को पहचानते हैं,
इसलिए हमसे कुटिल-काँटे, लड़ाई ठानते हैं।
छेदते हैं जो हमारे, वतन का नाजुक बदन,
ठोकरों से हम उन्हें, हरदम कुचलना जानते हैं।।
दरियादिली को, बुज़दिली तुम मत समझना,
दिल की लगी को, दिल्लगी तुम मत समझना।
वक्त आने पर बहा देंगे लहू की धार को,
कभी भी लाचार हमको मत समझना।।
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शनिवार, 24 अक्तूबर 2015
मुक्तक "कभी भी लाचार हमको मत समझना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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