पुस्तक समीक्षा

पुस्तक
- रूप की धूप ( दोहा संग्रह )
रचनाकार
- डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्रकाशक
- आरती प्रकाशन, लालकुआँ (नैनीताल)
समीक्षक
- रेखा लोढ़ा "स्मित"
डॉ रूपचन्द्र शास्त्री
"मयंक" का सद्य प्रकाशित दोहा संग्रह अपने नाम के अनुरूप रूपचन्द्र जी
के साहित्य की कहीं लालित्य भरी, रिश्तों
की मिठास, त्योहारों का उल्लास, प्रकृति के सुन्दर चितराम सजाये भोर की कुनकुनी धूप दृष्टिगोचर होती है
तो कहीं विसंगतियों, विषमताओं, व व्यवस्थाओं पर प्रहार करती जेठ वैशाख की दोपहरी सी कठोर।
61 शीर्षकों में विभक्त 541 दोहों और 17 दोहा गीतों से सजे इस दोहा संग्रह "रूप
की धूप" में दोहाकार ने जहाँ एक और जीवन और रिश्तों के बारीक से बारीक तन्तुओं
को छुआ है, वहीं हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमारे
त्यौहार व परम्पराओं को जो वर्तमान परिवेश में लुप्त होने लगी है, सुन्दर चित्रण से जीवन्त किया है। यथा-
"नाग
पञ्चमी पर लगी, देवालय में भीड़।
कानन
में सब खोजते, नाग देव के नीड़।।"
--
"कच्चे
धागे से बँधी, रक्षा की पतवार।
रोली
अक्षत तिलक में, छिपा हुआ है प्यार।।"
ऋतुओं
के चित्रण के साथ साथ रचनाकार ने बिगड़ते पर्यावरण संतुलन पर भी पैना प्रहार किया
है, तथा विषम परिस्थितियों से सचेत भी
किया है। यथा-
"दूर दूर तक जल नहीं, सूखे झील तड़ाग।
पानी
की अब खोज में, उड़ने लगे हैं काग।।
कंकरीट
जब से बना, जीवन का आधार।
तब
से पर्यावरण की, हुई करारी हार।।
पर्यावरण
बचाइये, धरती कहे पुकार।
पेड़
लगा कर कीजिये, धरती का शृंगार।।"
रचनाकार ने जीवन के सुखद व दुखद सभी
पहलुओं को स्पर्श करते हुए वृद्धावस्था की पीड़ा का भी अनूठा चित्रण किया है। हिन्दी की दशा दिशा हो या
वर्तमान आभासी दुनिया का स्वरूप राजनैतिक दाव-पेंच हो या वोटों के राजनैतिक दंश
से ग्रसित जन समाज।
“नहीं
बुढ़ापे में चलें, यौवन जैसे पाँव।
बरगद
बूढ़ा हो चला, कब तक देगा छाँव।।“
--
देख
दुर्दशा देश की, होता बहुत मलाल।
प्रजातन्त्र
में खा रहे, नेता सारा माल।।“
राष्ट्रीय चेतना की बात करें या नारी विमर्श
की कोई क्षेत्र शास्त्री जी से अछूता नहीं रहा है। आधुनिक नारी के रहन सहन से कवि मन चिंतित
दिखाई देता है, तो वही माँ की ममतामयी छवि को भी
खूबसूरती उकेरा है-
“पुरुष
प्रधान समाज में, नारी का अपकर्ष।
अबला
नारी का भला, कैसे हो उत्कर्ष।।“
--
“ममता
का पर्याय है, दुनिया की हर नार।
नारी
तेरे रूप को, नतमस्तक शत् बार।।“
जहाँ रचनाकार ने अपने कवि धर्म का
निर्वाह पूरी ईमानदारी से किया है वहीं छन्द के सुघड़ सुन्दर विन्यास व लालित्य
पूर्ण रचना पूरी तरह छन्दानुसाशन में रह कर की है।
“ढाई
आखर में छिपा, जीवन का विज्ञान।
माँगे
से मिलता नहीं, कभी प्यार का दान।।“
दोहे जैसा छन्द जो वर्तमान की छन्द
विहीन कविताओं की आँधी में अपना स्थान खोता जा रहा है, शास्त्री जी ने दोहा विधा को अपने सशक्त सुरुचिपूर्ण दोहों से गरिमा और ऊँचाइयाँ
प्रदान की है।
“दोहा
छोटा छन्द है, करता भारी मार।
सीधे-सादे
शब्द ही, करते सीधा वार।।“
कुल मिलाकर जीवन के हर पहलू को समेटती
पुस्तक एक सम्पूर्ण ग्रन्थ का आकर धारण करती है। जिसमे न केवल परिस्थितयों के
प्रति चिंता है अपितु उनसे उभरने के सुंदर सरल उपाय भी है।
आरती प्रकाशन, लालकुआँ (नैनीताल) से
प्रकाशित "रूप का धूप" अपने आवरण पर दोहाकार की सौम्य छवि से सज्जित, सुन्दर व सहज पठनीय अक्षरों में
लिपिबद्ध प्रकाशक के श्रम को दर्शाती सारगर्भित पुस्तक है।
“रूप की धूप”
दोहा संग्रह को पढ़कर मैंने यह अनुभव किया है कि यह ग्रन्थ पाठकों के हृदय को
छुएगा तथा उनके भावों को उद्वेलित कर सकारात्मकता की और अग्रसर करेगा।
मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है
कि दोहों पर आधारित यह कृति समीक्षकों के लिए भी उपादेय सिद्ध होगी। क्योकि कवि
ने छन्दों में उपयुक्त सब्दों का संग-साथ लेकर पिंगल के सभी नियमों का पालन अपने
दोहों में किया है।
शुभ कामनाओं सहित-
28
अप्रैल, 2016
रेखा
लोढ़ा "स्मित"
भीलवाड़ा
(राजस्थान)
|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथासम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।