भटक रहा है आज आदमी, तपते रेगिस्तानों में।
अपने मन का चैन खोजता, मजहब की दूकानों में।
चौकीदारों ने मालिक को, बन्धक आज बनाया है,
मिथ्या आडम्बर से, भोली जनता को भरमाया है,
धन के लिए समागम होते, सभागार-मैदानों में।
पहले लूटा था गोरों ने, अब काले भी लूट रहे,
धर्मभीरु भक्तों को, भगवाधारी जमकर लूट रहे,
क्षमा-सरलता नहीं रही, इन इन्सानी भगवानों में।
झोली भरते हैं विदेश की, हम सस्ते के चक्कर में,
टिकती नहीं विदेशी चीजें, गुणवत्ता की टक्कर में,
नैतिकता नीलाम हो रही, परदेशी सामानों में।
जितनी ऊँची दूकानें, उनमें फीके पकवान सजे,
कंकड़-पत्थर भरे कुम्भ से, कैसे सुन्दर साज बजे,
खोज रहे हैं लोग जायका, स्वादहीन पकवानों में।
गंगा सूखी, यमुना सूखी, सरस सुमन भी सूख चले,
ज्ञानभास्कर लुप्त हो गया, तम का वातावरण पले,
ईश्वर-अल्लाह कैद हो गया, आलीशान मकानों में।।
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मंगलवार, 12 अप्रैल 2016
गीत "तपते रेगिस्तानों में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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