नयी
पौध पर है नहीं, आज किसी का जोर।
धरती
बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।
दोहन
पेड़ों का हुआ, नंगे हुए पहाड़,
नगमग
करते शैल से, बस्ती हुई उजाड़।
इस
हालत का कौन है, बोलो जिम्मेवार,
नेता
रिश्वतखोर हैं, मौन हुई सरकार।
सीधी-सादी
सभ्यता, सोई चादर तान,
लोग
पलायन कर रहे, मैदानों की ओर।
धरती
बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।
नदियों
में बहता नहीं, अब तो निर्मल नीर,
प्राणवायु
कैसे मिले, दूषित हुआ समीर।
बोलो
अब उस देश का, कैसे हो उत्थान,
अन्धकार
से हो भरी, जहाँ सुहानी भोर।
जीवन
जीने के लिए, मिले कहाँ से धूप,
आवारा
बादल चढ़े, नभ पर अब घनघोर।
धरती
बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।
पल-पल
रंग बदल रहा, अब अपना परिवेश,
पुस्तक
तक सीमित हुए, ऋषियों के सन्देश।
बिरुओं
को मिलता नहीं, नेह-नीर अनुकूल,
उपवन
में कैसे खिलें, सुन्दर-सुन्दर फूल।
अबलाओं
की लाज को, कौन बचाए आज,
चीर
द्रोपदी का स्वयं, खींचे नन्द-किशोर।
धरती
बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।
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बुधवार, 27 अप्रैल 2016
दोहागीत "फसल उगी कमजोर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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