छिपा क्षितिज में सूरज राजा,
ओढ़ कुहासे की चादर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
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कुदरत के हैं अजब नजारे,
शैल ढके हैं हिम से सारे,
दुबके हुए नीड़ में पंछी,
हवा चल रही सर-सर-सर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
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कोट पहनकर, छोड़ रजाई,
दादा जी ने आग जलाई,
मिल जाती गर्मी अलाव से,
लकड़ी पाना है दूभर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
टॉम-फिरंगी प्यारे-प्यारे,
सिकुड़े बैठे हैं बेचारे,
तन को गर्मी पहुँचाने को,
भाग रहे हैं इधर-उधर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
मिलते नहीं कहीं अब कण्डे,
बिना गैस के चूल्हे ठण्डे,
महँगाई की मार पड़ी है,
जीवन जीना है दूभर।
सर्दी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
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सोमवार, 3 दिसंबर 2018
गीत "कुहासे की चादर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

बहुत खूब.....
उत्तर देंहटाएंछिपा क्षितिज में सूरज राजा,
उत्तर देंहटाएंओढ़ कुहासे की चादर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
कुदरत के हैं अजब नजारे,
शैल ढके हैं हिम से सारे,
दुबके हुए नीड़ में पंछी,
हवा चल रही सर-सर-सर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
कोट पहनकर, छोड़ रजाई,
दादा जी ने आग जलाई,
मिल जाती गर्मी अलाव से,
लकड़ी पाना है दूभर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
मौसम का मिज़ाज़ बतलाता खूब-सूरत गीत अपने शास्त्री जी का ,४६ वीं वैवाहिक वर्ष गांठ मुबारक।
गांठ नहीं ये प्रेम मिलन है ,
मन को मन का मीत मिला है।
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