मेरी प्यारी
जूली
गतांक से आगे....
कालान्तर में जूली ने 4 छोटे-छोटे पिल्लों को जन्म दिया। जिसमें से एक
तो जन्म के बाद ही चल बसा। एक पेयर मेरे मित्र डॉ. दत्ता ने ले लिया और एक
पिल्ला हमने अपने पास रख लिया। प्यार से उसका नाम पिल्लू रखा गया। यह हल्के
ब्राउन रंग का था। जूली की तरह इसके बड़े बाल नहीं थे। इसको अधिक कुछ हमें सिखान
भी नहीं पड़ा। क्योंकि यह अपनी माँ को देख-देखकर खुद ही काफी कुछ सीख गया था।
घर वालों को यह ज्यादा अच्छा नहीं लगता था क्योंकि यह अपनी माँ की तरह
बड़े बालों वाला नहीं था। मेरी माता जी तो इसे बिल्कुल भी पसंद नहीं करती थीं और
इसे कूड़ा चुगने वाला कुत्ता बतातीं थीं!
एक दिन एक
मनीहार चूड़ी पहनाने के लिए बनबसा आया तो माता जी ने कहा कि भैया इस कुत्ते को
अपने घर ले जा। मनीहार ने कहा कि माता जी इसको चेन मे बाँधकर मुझे दे दो।
माता जी ने
पिल्लू को चेन में बाँधकर मनीहार के हाथ में चेन थमा दी। जब तक माता जी पिल्लू
को दिखाई देती रहीं तब तक तो पिल्लू कुछ नही बोला मगर जैसे ही मनीहार इसे लेकर
चला तो पिल्लू ने उसे 2-3 जगह काट लिया। जैसे-तैसे वह पिल्लू की चेन छोड़कर चलता
बना।
जब पिल्लू 6 महीने का हा तो इसकी माँ जूली को जलोदर रोग हो गया और वह 2
महीने में चल बसी। कुछ दिनों तक तो पिल्लू बहुत परेशान रहा मगर अब यह पहले से
ज्यादा समझदार हो गया था।
उन दिनों मैंने एक बीघा का प्लॉट खटीमा में ले लिया था और इसको बनाने के
ले काम शुरू कर दिया था। पिता जी खटीमा में ही रहने लगे थे। माता जी ने पिल्लू
को भी पिता जी के साथ खटीमा भेज दिया था। सुबह एक बार 8 बजे मैं भी बनवसा से
खटीमा का चक्कर लगा आता ता और राज-मिस्त्रियों को काम समझा आता था।
पिल्लू मुझे देखकर बहुत खुश हो जाता था। जिस किसी दिन खटीमा के प्लॉट पर
कोई नहीं होता था तो पिल्लू पूरी मुस्तैदी से सारे सामान की देखभाल करता था।
सुबह को जब राज मिस्त्री काम पर आते थे तो क्या मजाल थी कि यह प्लॉट में घुस
जाएँ। पिल्लू मोटी-मोटी बल्लियों को मुँह में दबा कर बैठ जाता और किसी को हाथ भी
नहीं लगाने देता था।
जब मैं या पिता जी आते थे तो यह सामान्य हो जाता था और राज-मजदूर अपने
काम पर लग जाते थे।
करीब तीन महीने बाद खटीमा में 3 दूकाने और रहने के लिए 3 कमरे तैयार हो
गये थे। अतः हम लोग भी बनबसा से खटीमा में ही शिफ्ट हो गये थे। पिल्लू बाहर गेट
के पास ही रहता था और हम लोग चैन की नींद सोते थे।
उन दिनों बाहर का आँगन कच्चा ही था और उसमें ईंटें बिछी हुई थी। अतः
गर्मियों में मेरे पिता जी बाहर गन में चारपाई डालकर सोते थे। पिल्लू उनकी
चारपाई के नीचे पड़ा रहता था।
मैं प्रतिदिन सुबह 4 बजे उठकर घूमने के लिए जाता था और पिल्लू मेरे
साथ-साथ चल पड़ता था। एक दिन मैं जब उठकर घूमने के लिए जा रहा था तो देखा कि कि
पिता जी की चारपाई से कुछ दूर एक साँप लहूलुहान मरा पड़ा था तो मुझे यह समझते
हुए देर न लगी कि पिल्लू ने ही यह सब किया होगा।
इस वफादार ने अपनी जान की परवाह न करते हुए साँप को मार डाला और मेरे
पिता जी रक्षा की।
ऐसे होते हैं ये बिन झोली के फकीर।
मालिक के वफादार और सच्चे चौकीदार।।
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ऐसे होते हैं ये बिन झोली के फकीर।
जवाब देंहटाएंमालिक के वफादार और सच्चे चौकीदार।।
...सच इन मूक प्राणियों से वफादार और कोई नहीं ..
प्रेरक स्मरण ..
बहुत सुंदर संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने ये ही सच्चे वफादार और चौकीदार होते हैं
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा मानव और जीव के बीच का प्यारा बंधन
सादर !
Bahut sunder prastuti...!!
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