भले हों नाम के पत्थर
मगर हैं काम के पत्थर
समन्दर में भी तिरते हैं
अगर हों राम के पत्थर
बढ़े जब पाप धरती पर
गिरे शिवधाम के पत्थर
हुआ है आम बेचारा
चले हुक्काम के पत्थर
कभी जो मुफ्त मिलते थे
हुए अब दाम के पत्थर
बचेंगी बस्तियाँ कैसे
खिसकते डाम के पत्थर
हमेशा झेलता है “रूप”
क्यों इलज़ाम के पत्थर
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शुक्रवार, 24 जून 2016
ग़ज़ल "इलज़ाम के पत्थर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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