ज़रूरत बढ़ गईँ इतनी, हुई है ज़िन्दग़ी खोटी।
बहुत मुश्किल जुटाना है, यहाँ दो जून की रोटी।।
नहीं ईंधन मयस्सर है, हुई है गैस भी महँगी,
पकेगी किस तरह बोलो, यहाँ दो जून की रोटी।
बहुत ऊँचे हुए हैं भाव, अब तो दाल-आटे के,
गरीबी में हुई भारी, यहाँ दो जून की रोटी।
अज़ब अन्धेर नगरी है, टके की कुछ नहीं कीमत,
हुई है जान से महँगी, यहाँ दो जून की रोटी।
लगा है “रूप” का मेला, मुखौटों की नुमायश है,
मिली अस्मत के बदले में, यहाँ दो जून की रोटी।
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शुक्रवार, 3 जून 2016
ग़ज़ल "यहाँ दो जून की रोटी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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