हँसी भी है-खुशी भी है, तमन्नाओं की लहरे हैं
तभी नमकीन पानी में, बहुत से जीव ठहरे हैं
उमड़ती भावनाएँ जब, तभी तो ज्वार आता है
समन्दर की तलहटी में, पड़े माणिक सुनहरे हैं
कई सदियों से डूबी हैं, यहाँ गुस्ताख़ चट्टानें,
अभी इन कन्दराओं में, बसे असुरों के चेहरे हैं
मधुर जल से तुम्हें भरती, हमेशा पावनी गंगा
हुआ फिर नीर क्यों खारा, लगे क्यों आज पहरे हैं
बड़ी हसरत थी कोई तो, जुबां अपनी हिलायेगा
मगर इस जग के बाशिन्दे, तो गूँगे और बहरे हैं
लरजता “रूप” सरिता का, हुआ खामोश है अब तो
दिये हैं घाव जो दिल में, समन्दर से भी गहरे हैं
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रविवार, 18 सितंबर 2016
ग़ज़ल "नमकीन पानी में बहुत से जीव ठहरे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंलरजता “रूप” सरिता का, हुआ खामोश है अब तो
जवाब देंहटाएंदिये हैं घाव जो दिल में, समन्दर से भी गहरे हैं
.....ज़माने भर का दर्द समां जो गया है नदी में ..
बहुत सुन्दर