अपने शब्दों में धार भरो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
अनुबन्धों में भी मक्कारी,
सम्बन्ध बन गये व्यापारी।
जननायक करते गद्दारी,
लाचारी में दुनिया सारी।
अब नहीं समय शीतलता का,
मलयानिल में अंगार भरो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
है उपासना वासनायुक्त,
करना इसको वासनामुक्त।
कायरता का है उदयकाल,
हो गयी वीरता आज लुप्त।
अब पैन बाण सा पैना कर,
गांडीव उठा टंकार करो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
मत उत्तेजक शृंगार करो,
मिश्री जैसा मत प्यार करो।
छन्दों की सबल इमारत में,
मानवता का आधार धरो।
निज “रूप” पुरातन पहचानो,
फिर से वीणा झंकार करो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
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शुक्रवार, 31 मार्च 2017
गीत "मलयानिल में अंगार भरो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
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