प्रीत की पोथियाँ बाँचते-बाँचते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।
फासलों की फसल काटते-काटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
मन तो है चिरयुवा,
तन शिथिल पड़ रहा।
बूढ़ा बरगद अभी,
जंग को लड़ रहा।
सुख की सौगात को बाँटते-बाँटते,
झुक गयी है कमर।
ढल गयी है उमर।।
नेह की आस में,
बातियाँ जल रहीं।
वक्त आया बुरा,
आँधियाँ चल रहीं।
धुन्ध को-धूल को छाँटते-छाँटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
झूठ की रेल है,
सत्यता है कहाँ?
नौनिहालों में अब,
सभ्यता है कहाँ?
ज्ञान की गन्ध को बाँटते-बाँटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
देश आजाद है,
पर अमन हैं कहाँ?
मुस्कराता हुआ,
अब चमन हैं कहाँ?
ओस की बून्द को चाटते-चाटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
ख्वाब का नगमगी,
“रूप” है अब कहाँ?
प्यार की गुनगुनी,
धूप है अब कहाँ?
खाई अलगाव की पाटते-पाटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
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शनिवार, 1 अप्रैल 2017
जय विजय पत्रिका में मेरा गीत "ढल गयी है उमर"
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prakashan ke liye bahut-bahut badhai
जवाब देंहटाएंवाह .... बहुत ख़ूबसूरत रचना ...
जवाब देंहटाएंबधाई प्रकाशन की ...