मित्रों।
आज घर की पुरानी अलमारी में
जीर्ण-शीर्ण अवस्था में
1970 से 1973 तक की
एक पुरानी डायरी मिल गयी।
जिसमें मेरी यह रचना भी है-
सब तोप तबर बेकार हुए,
अब डरो न तीर कमानों से।
भय मानो तो ऐ लोगों!
मानो मीठी मुस्कानों से।।
शासन से कह दो, अब करना
फौजों का निर्माण नहीं।
छाँट-छाँट कर वीर सजीले,
भरती करना ज्वान नहीं।।
सागर में डुबो फेंक दो सब,
बन्दूकों और हथियारों को।
सेना में भरती करलो,
कुछ सुन्दर-सुन्दर नारों को।।
बनी-ठनी जब ये बालाएँ,
रणस्थल में चालेंगी।
लाखों ही वीरों के दिल के
टुकड़े हजार कर डालेंगी।।
सजी-धजी बालाओं का तो
सारे जग में चर्चा है।
कुछ अधिक नहीं देना होगा,
बस मामूली सा खर्चा है।।
कुछ पाउडर-क्रीम लवेंडर और
कुछ देना होठों की लाली।
बस इतने से ही खर्चे में
होगी सीमा की रखवाली।।
जो काम नहीं कर सकी अरे
गाँधी की फटी लँगोटी रे।
वो काम सहज कर जायेंगी,
नागिन सी इनकी चोटी रे।।
तोप तमंचे गोलों की,
अब नहीं यहाँ परवाह हमें।
सुन्दर-सुन्दर नारी दो,
भगवान यही है चाह हमें।।
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बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंनिमंत्रण
जवाब देंहटाएंविशेष : 'सोमवार' २६ फरवरी २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीय माड़भूषि रंगराज अयंगर जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।
अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
सामने से आने वाली गोली के लिए मेकअप ढाल तो नही बन जायेगा।
जवाब देंहटाएंस्त्री सम्मान की बात भी एक पुरूष करता है वो भी अपने स्वार्थ के लिए।
मयंक जी लेखन में गहरी सोच पत्थर पर लगने वाली पहली चोट होती है।
उम्दा