पड़ गईं जब पेट में दो रोटियाँ, बेजुबानों में जुबानें आ गईं। बस गईं जब बीहड़ों में बस्तियाँ, चल के शहरों से दुकानें आ गईं। मन्दिरों में आरती होने लगीं, मस्जिदों में भी नमाजें आ गईं। कंकरीटों की फसल उगने लगी, नस्ल नूतन कहर ढाने आ गई। गगनचुम्बी शैल हिम तजने लगे, नग्नता सूरत दिखाने आ गईं। |
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बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
“बेजुबानों में जुबाने आ गईं..” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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इस गज़ल में गहरी व्यंजना है । 'नस्ल नूतन' का तो जवाब नहीं ।
जवाब देंहटाएंआह ग़ज़ल ! वाह ग़ज़ल !
जवाब देंहटाएं"बेजुबानों में ज़ुबाने आ गईं "
इसमें से यदि भी निकाल जाये तो शायद और अधिक बेहतर होगा
mynk saahb zindgi kaa jivnt udaahrn aapne alfaazon se gdh kr pesh kiya he bhut khub he aek ziondaa desh ki yhi dastaan he, akhtar khan akela ktoa rajsthan
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंबस गईं जब बीहड़ों में बस्तियाँ,
जवाब देंहटाएंचल के शहरों से दुकानें आ गईं।
कंकरीटों की फसल उगने लगी,
नस्ल नूतन कहर ढाने आ गई।
बहुत सटीक बात कही है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत संवेदनशील रचना है.... बिल्कुल सही बैठती है हमारे आज के तथाकथित विकसित समाज पर.....
जवाब देंहटाएंबहुत दूर का सोच लिए रचना |बधाई
जवाब देंहटाएंआशा
जिन्दा बचे है जो , खुदा का शुक्र है,
जवाब देंहटाएंवर्ना, जिंदगी से बाहर आतें आ गयी !
लिखते रहिये ....
बेहतरीन अभिव्यक्ति...बधाई.
जवाब देंहटाएं__________________________
"शब्द-शिखर' पर जयंती पर दुर्गा भाभी का पुनीत स्मरण...
बस गईं जब बीहड़ों में बस्तियाँ,
जवाब देंहटाएंचल के शहरों से दुकानें आ गईं।
बहुत ही सुन्दर .......भावमय प्रस्तुति ।
वाह ! बेहद उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंAchi vyanjana hai ...........
जवाब देंहटाएंvyanjana .
ये होती है लयबद्ध अभिव्यक्ति………………और अपनी बात कहने का सही ढंग्……………बेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंगगनचुम्बी शैल हिम तजने लगे,
जवाब देंहटाएंनग्नता सूरत दिखाने आ गईं।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, शास्त्री जी!
Shashtri ji, chha gaye aap.
जवाब देंहटाएंबस गईं जब बीहड़ों में बस्तियाँ,
जवाब देंहटाएंचल के शहरों से दुकानें आ गईं ..
बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए शास्त्री जी ..... बहुत कमाल की ग़ज़ल है ये ...
कमाल की रचना !
जवाब देंहटाएंvery good Shashtri darling
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