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रविवार, 19 दिसंबर 2010
"ग़ज़ल:आशा शैली" (प्रस्तोता:डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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bhut hi sundar abhibyakti...
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंबेहद प्रशंसनीय प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंदूर से उड़कर बदलती रुत में, जो आते रहे
जवाब देंहटाएंउन परिन्दों की बदौलत, वक्त की पहचान है
बहुत अच्छी ग़ज़ल। बेहतरीन।
बहुत सुंदर रचना जी. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंउन परिंदों की बदौलत ही वक़्त की पहचान है ..
जवाब देंहटाएंआभार !
मईं ठिठुरते हांपते रस्ते पे अपने बढ चली,
जवाब देंहटाएंसोचती थी राह जीवन की बड़ी आसान है।
सबसे अच्छा शे'र लगा । ख़ूबसूरत ग़ज़ल मुबा्रकबाद।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - एक सलाह - पर्यावरण के प्रति चेतना जागृत करने हेतु आगे आएं - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
जिन दियों में जान है, वही ज्योति आगे बढ़ा ले जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंsundar rachna prastuti ke liye
जवाब देंहटाएंbahut-bahut dhanyvad!
बड़ी सुन्दर भावाभिव्यक्ति...!!!
जवाब देंहटाएंमैं ठिठकती हाँफती, रस्ते पे अपने बढ़ चली
जवाब देंहटाएंसोचती थी राह जीवन की बड़ी आसान है
उम्र का तजुर्बा बोल रहा है पूरी ग़ज़ल में .. लाजवाब ...
अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
जवाब देंहटाएंकल तलक मुँह में नहीं थी, जिस परिन्दे के ज़ुबां
जवाब देंहटाएंआज उसके हौसलों पर, कुल जहाँ हैरान है
बहुत खूबसूरत गज़ल