करने में उपकार
को, नहीं मानता हार।
बाँट रहा है गन्ध
को, सबको हर सिंगार।।
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केसरिया टीका लगा,
हँसता हरसिंगार।
अमल-धवल ये सुमन
है, , कुदरत का उपहार।।
--
नतमस्तक होकर सदा,
करता है मनुहार।
धरती पर बिखरा हुआ,
लुटा रहा है प्यार।।
--
वैद्यराज के रूप
में, हरता सबके रोग।
वातव्याधि को दूर
कर, करता बदन निरोग।।
--
कलम बना कर डाल
की, मिट्टी में दो गाड़।
नित्य नेह से
सींचिए, उग जायेगा झाड़।।
--
माटी कैसी भी रहे,
नहीं इसे परहेज।
बिरुआ हरसिंगार का,
रखना सदा सहेज।।
--
कुछ वर्षों के बाद
में, तन इसका गदराय।
पौधा हरसिंगार का,
महावृक्ष बन जाय।।
--
सबके मन को मोहते,
सुन्दर-सुन्दर फूल।
पादप की नित-नियम
से, सदा सींचना मूल।।
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शस्यश्यामला धरा
पर, करना यह उपकार।
पेड़ लगाकर कीजिए,
धरती का सिंगार।।
|
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शनिवार, 6 फ़रवरी 2016
दोहे "हँसता हरसिंगार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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