आमबजट पर उठ रहे, ढेरों आज सवाल।
पिछले पैंसठ साल में, हुआ न ऐसा हाल।१।
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निर्धनता के नाम का, बजा रहे जो गाल।
धनवानों को बाँटते, वो ही स्वर्णिम थाल।२।
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पैदल चलकर जो कभी, गये नहीं बाजार।
दाल-भात के भाव क्या, जानें नम्बरदार।३।
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मँहगाई का देश में, रूप हुआ विकराल।
कैसे खाने में मिले, निर्धन को अब दाल।४।
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धीरे-धीरे बीतते, दिवस-महीने-साल।
लेकिन होते जा रहे, बद से बदतर हाल।५।
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सौदा करें गरीब का, खुले आम धनवान।
बन्दीघर में कैद हैं, न्याय और भगवान।६।
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राजनयिक परदेश के, करें भले ही वाह।
लेकिन अपने देश की, जनता भरती आह।७।
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अपना मत देकर बहुत, ठगे हुए हैं लोग।
केवल भाषण में मिला, उनको मोहन भोग।८।
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रहे भले ही मौन हों, बीते हुए वजीर।
लेकिन तब बाजार की, सस्ती थी तहरीर।९।
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देख दुर्दशा देश की, होता बहुत मलाल।
व्यापारी खुशहाल हैं, ग्राहक हैं बदहाल।१०।
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अच्छे दिन आये नहीं, झूठे निकले बोल।
दावों की सरकार के, खुली ढोल की पोल।११।
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सोमवार, 29 फ़रवरी 2016
ग्यारह दोहे "खुली ढोल की पोल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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