न्यायालय ने कर दिया, अपना पूरा काम।
कामी बाबा को मिला, उसको सही मुकाम।।
सच्चा सौदा था नहीं, पता चल गया आज।
छल-फरेब के जाल को, समझा सकल समाज।।
देख लिया संसार ने, कामुकता का हाल।
बाबाओं ने कर दिया, गन्दा पूरा ताल।।
रामपाल-गुरमीत भी, निकले आशाराम।
किया इन्होंने सन्त के, चोले को बदनाम।।
नौकाओं में पंथ की, दिखने लगे सुराख।
बाबाओं की अब नहीं, रही पुरानी शाख।।
दाँव-पेंच चलती रही, हरियाणा सरकार।
रौब-दाब को सामने, शासन था लाचार।।
बाबाओं ने देश में, जनता का आराम।
बगुलों ने टोपी लगा, जीना किया हराम।।
सत-संगत की आड़ में, पनप रहा है भोग।
बाबाओं के पाश में, बन्धक है अब योग।।
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शनिवार, 26 अगस्त 2017
दोहे "पनप रहा है भोग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसटीक और सामयिक रचना
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 28 अगस्त 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंजाने कब समझेगी जनता इन बाबाओं को ?
जवाब देंहटाएंसही.... सटीक.. लाजवाब ......।
जवाब देंहटाएंसमसामयिक प्रस्तुति...
लम्पट बाबाओं को शिखर बिठाने का श्रेय जनता को जाता है जो नहीं समझ पाती की'' परहित सरिस धर्म नहीं '' ------- बहुत सार्थक रचना ---- बहुर बधाई आदरणीय
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