अब कैसे दो शब्द लिखूँ, कैसे उनमें अब भाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
मौसम की विपरीत चाल है,
धरा रक्त से हुई लाल है,
दस्तक देता कुटिल काल है,
प्रजा तन्त्र का बुरा हाल है,
बौने गीतों में कैसे मैं, लाड़-प्यार और चाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
पंछी को परवाज चाहिए,
बेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
उलझे ताने और बाने में, कैसे सरल स्वभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
भाँग कूप में पड़ी हुई है,
लाज धूप में खड़ी हुई है,
आज सत्यता डरी हुई है,
तोंद झूठ की बढ़ी हुई है,
रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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सोमवार, 28 अगस्त 2017
गीत "तोंद झूठ की बढ़ी हुई है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुन्दर आभार ''एकलव्य"
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