गीत और ग़ज़लों वाला जो सौम्य सरोवर है। इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।। शब्द हिलोरें लेते जब भी मेरी रीती सी गागर में, देता हूँ उनको उडेल मैं, धारा बन करके सागर में, उच्चारण में ठहर गया जीवन्त कलेवर है। इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।। पगडण्डी है वही पुरानी, जिसको मैंने अपनाया है, छंदों का संसार सनातन, मेरे मन को ही भाया है, छल-छल, कल-कल करती गंगा बहुत मनोहर है। इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।। पर्वत मालाएँ फैली हैं, कितनी धरा-धरातल पर, किन्तु हिमालय जैसा कोई, नज़र न आता भूतल पर, जो अरिदल से रक्षा करता वही महीधर है। इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।। बेच रहे ऊँचे दामों में, स्वादहीन पकवानों को, शिक्षा की बोली लगती है, ऊँचे भव्य मकानों में, जो देता है जीवन सबको, वही पयोधर है। |
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बुधवार, 6 अप्रैल 2011
"सौम्य सरोवर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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सुन्दर गीत..
जवाब देंहटाएंबेच रहे ऊँचे दामों में, स्वादहीन पकवानों को,
जवाब देंहटाएंशिक्षा की बोली लगती है, ऊँचे भव्य मकानों में,
जो देता है जीवन सबको, वही पयोधर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।
ati sunder
बहुत प्यारा गीत..
जवाब देंहटाएंपगडण्डी है वही पुरानी, जिसको मैंने अपनाया है,
जवाब देंहटाएंछंदों का संसार सनातन, मेरे मन को ही भाया है,
हमको भी यह पगडण्डी, अब सबसे अधिक सुहाती है।
जब भी खोता तनहाई में, चुपके से आ जाती है।
बहुत सुन्दर गीत.
जवाब देंहटाएंआप लाभदायक जानकारी देते हैं .
जवाब देंहटाएंआज आपके ब्लॉग का लिंक 'ब्लॉग कि ख़बरें' ब्लॉग पर लगाया जा रहा है .
http://blogkikhabren.blogspot.com/
बेच रहे ऊँचे दामों में, स्वादहीन पकवानों को,
जवाब देंहटाएंशिक्षा की बोली लगती है, ऊँचे भव्य मकानों में,
जो देता है जीवन सबको, वही पयोधर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।
..बहुत भावमयी सुन्दर गीत...आभार
सुन्दर गीत..
जवाब देंहटाएंआपकी हर कृति पहले से और अच्छी लगती है..
जवाब देंहटाएंबेच रहे ऊँचे दामों में, स्वादहीन पकवानों को,
जवाब देंहटाएंशिक्षा की बोली लगती है, ऊँचे भव्य मकानों में,
जो देता है जीवन सबको, वही पयोधर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।
सामजिक सरोकारों को भी आप भूलते नहीं ...सुन्दर गीत ..
बहुत प्यारा गीत....
जवाब देंहटाएंkhoobsurat geet hai guru jee
जवाब देंहटाएंशब्द हिलोरें लेते जब भी मेरी रीती सी गागर में,
जवाब देंहटाएंदेता हूँ उनको उडेल मैं, धारा बन करके सागर में,
उच्चारण में ठहर गया जीवन्त कलेवर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।
अरे इसमे इतना दर्द क्यों है…………जीवन्त कलेवर कैसे ठहरा रहे हैं…………बस मन के भावो को शब्द देते रहिये।
सुन्दर रचना।
बहुत प्यारा गीत है .
जवाब देंहटाएंऔर ये पंक्तियाँ तो कमाल कर गयीं.
शब्द हिलोरें लेते जब भी मेरी रीती सी गागर में,
देता हूँ उनको उडेल मैं, धारा बन करके सागर में,
बहुत ही मीठा गीत.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंआभार