शीतलता को देने वाले। पारा जब दिन का बढ़ जाता। तब शहतूत बहुत मन भाता। इसका वृक्ष बहुत उपयोगी। ठण्डी छाया बहुत निरोगी।। |
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बहुत खूब ... आखिर में सही सीख दी आपने ...!!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमुझे तो अभी खाने क दिल कर रहा है .
जवाब देंहटाएंज़माना हो गया शहतूत खाए ..
जवाब देंहटाएंprernadayi rachna
जवाब देंहटाएंकुछ देर पहले आपकी तारीफ की और अब आपकी इस शहतूती रचना की..
जवाब देंहटाएंलेकिन मुझे इस की सन्टी से बहुत डर लगता था.. :)
देखकर खाने की इच्छा हो रही है।
जवाब देंहटाएंजो भी शहतूत निशदिन खाए
जवाब देंहटाएंकब्ज रोग उसे कभी न सताए
पर शास्त्री जी दुर्लभ होता जा रहा है शहतूत अब तो.
आपने जो शानदार चित्र दिखाए ,उनसे तो पानी भर भर आ रहा है मुहँ में.
शहतूत महिमा पसंद आई.
जवाब देंहटाएंएक अरसा गुजर गया शहतूत देखे हुए.
शहतूत सी मीठी कविता |सुंदर चित्र और शहतूत का पेड़ लगाने की सीख |अच्छी पोस्ट पढ़वाने के लिए आभार |
जवाब देंहटाएंआशा
बहुत सुन्दर तस्वीरें ...
जवाब देंहटाएंजमाना हुआ इनका दर्शन किये !
कभी शहतूत का पेड़ हमारे घर में भी हुआ करता था और उसमें बहुत मीठे शहतूत आते थे लेकिन बाद में उसमें कीड़ा लग गया और खतरनाक हो जाने पर उसे हटाना पड़ा ! उसका मीठा स्वाद अभी तक जिह्वा में रचा बसा है ! बहुत उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक रचना !
जवाब देंहटाएंआपने तो मुझे बचपन में लौटने का सुअवसर दे दिया. आभार.
जवाब देंहटाएंजितना शहतूत मीठा उतनी ही ये बालकविता भी मीठी है.
जवाब देंहटाएंशायद बचपन मे ही खाये थे……………आनन्द आ गया देखकर और पढकर्।
जवाब देंहटाएंशहतूती रचना की तारीफ कैसे करूँ ?बहुत खूब
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायी परिचय है इस कविता में.
जवाब देंहटाएंसचमुच। मुंह में पानी आ गया शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएं---------
भगवान के अवतारों से बचिए!
क्या सचिन को भारत रत्न मिलना चाहिए?
वाह! मुंह में पानी आ गया शास्त्री जी ! पर हमारे बाम्बे में ये कम ही दीखते है --
जवाब देंहटाएं