बेक़रारी के खाद-पानी से, कुछ तराने नये मचलते हैं। पत्थरों के जिगर को छलनी कर, नीर-निर्झर नदी में ढलते हैं।। आह पर वाह-वाह! करते हैं, जब भी हम करवटें बदलते हैं। वो समझते हैं पीड़ को मस्ती, नग़मग़ी राग जब निकलते हैं। दिल की लगी, दिल्लगी समझते हैं, कब्र पर जब च़राग जलते हैं। अपनी गर्दन झुका नहीं पाते, “रूप” को देख हाथ मलते हैं। |
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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012
"कुछ तराने नये मचलते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सार्थक,संवेदनशील भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती कविता
जवाब देंहटाएंमनोरम है /
पत्थरों के जिगर को छलनी कर,
जवाब देंहटाएंनीर-निर्झर नदी में ढलते हैं।।
bahut sundar panktiya ...lajabaab
दिल की लगी, दिल्लगी समझते हैं,
जवाब देंहटाएंकब्र पर जब च़राग जलते हैं।
बहुत सुंदर
क्या कहने
क्या बात है....बहुत,बेहतरीन अच्छी प्रस्तुति,सुंदर रचना के लिए बधाई,.....
जवाब देंहटाएंMY NEW POST...आज के नेता...
बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंपत्थरों के जिगर को छलनी कर,
जवाब देंहटाएंनीर-निर्झर नदी में ढलते हैं।।
sunder bhav ...
वो समझते हैं पीड़ को मस्ती,
जवाब देंहटाएंनग़मग़ी राग जब निकलते हैं।
अक्सर ऐसा ही होता है...
दिल की लगी, दिल्लगी समझते हैं,
जवाब देंहटाएंकब्र पर जब च़राग जलते हैं।
वाह वाह,,,
बहुत अच्छा ..
जवाब देंहटाएंkalamdaan.blogspot.in
दोहों से गजल तक सभी सधे हुए, बधाई।
जवाब देंहटाएंbahut sundar bhavabhivyakti hetu badhai .
जवाब देंहटाएंवो समझते हैं पीड़ को मस्ती,
जवाब देंहटाएंनग़मग़ी राग जब निकलते हैं। बधाई,बेहतरीन अच्छी प्रस्तुति,
इन तरानों को शब्द मिलते रहें..
जवाब देंहटाएंआह पर वाह-वाह! करते हैं,
जवाब देंहटाएंजब भी हम करवटें बदलते हैं।
वो समझते हैं पीड़ को मस्ती,
नग़मग़ी राग जब निकलते हैं।
वाह! सुन्दर रचना सर...
सादर.
बेक़रारी के खाद-पानी से,
जवाब देंहटाएंकुछ तराने नये मचलते हैं।
बढ़िया मतला बढ़िया ग़ज़ल कुछ अलग हटके .
बेहद खुबसूरत नज़्म..
जवाब देंहटाएंbahut sunder bhavmai rachanaa .bahut badhaai aapko /
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज की ब्लोगर्स मीट वीकली (३२) में शामिल किया गया है /आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप सबका आशीर्वाद और स्नेह इस मंच को हमेशा मिलता रहे यही कामना है /आभार /इस मीट का लिंक है
http://hbfint.blogspot.in/2012/02/32-gayatri-mantra.html