बैंगन का करना नहीं, कोई भी विश्वास।
माल-ताल जिस थाल में, जाते उसके पास।।
--
कुछ बैंगन होते यहाँ,
चतुर और चालाक।
छल से और फरेब से, खूब जमाते धाक।।
जब चुन कर के आये थे, तब थे बहुत कुरूप।
जब से कुर्सी मिल गयी, निखर गया है “रूप”।।
--
मनमोहन को मोहते, ऐसे ही चितचोर।
चापलूस बैंगन सदा, करते भाव विभोर।।
कल तक जो कंगाल थे, अब हैं माला-माल।
इनका घर भरता सदा, सूखा-बाढ़-अकाल।।
--
घोटालों के वास्ते, बनते हैं आयोग।
फलते इनके नाम पे, बैंगन के उद्योग।।
दाम-दण्ड औ’ भेद
से, लेते हैं ये काम।
छल की है इनकी तुला, कारा में है साम।।
|
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शनिवार, 29 जून 2013
"चापलूस बैंगन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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ऊपर से दिखती है बात तरकारी की
जवाब देंहटाएंभीतर मगर कुछ और ही सवाल है।
आपका अंदाजे बयां है ग़ज़ब मयंक जी
पाठक यह अदना - सा हो गया निहल है।
सच है कवि साहित्यकार ही आने वाले स्वर्णिम युग की नींव रखेंगे ... धूर्तों के विरोध में वातावरण निरंतर बनाए रखना है।
जवाब देंहटाएंचापलूस प्रमुख (मुखिया) के चारों ओर चापलूसों के जमावड़े ने देश की छवि को धूमिल किया ही है। मुखिया जी भारत देश के प्रतिनिधि कम पूंजीवादी देशों के एजेंट अधिक नज़र आते हैं।
अब वे बिना बालों (बिना जूड़ी) वाले सरदार हैं। आत्मा विहीन शरीर, स्वाभिमान शून्य ह्रदय हैं।
घोटालों के मल-विष्ठा वाले नाले में तैरते निचुड़े नीम्बू के छिलके हैं। इतने घृणास्पद कि जिन्हें देखकर स्वतः कय हो जाए। इतने धिक्कार के योग्य कि थूक-थूककर भी थकान महसूस न हो।
मयंक जी, आपकी इस रचना से तब तक सुख मिलेगा जब तक सार्थक बदलाव न आये। आपका बैंगनी रूपक पसंद आया। आभार इन भावों को व्यक्त करने के लिए।
यह सही रहा ..
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं आपको !
भारत की कहानी बैंगन की जुबानी भैया बैंगन राखिये ,बैंगन बिन सब सून ....
जवाब देंहटाएंअच्छा तुल्नात्मक व्यंग और ठोस प्रहार..
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें
बैगन के सहारे सबको निपटाया है आपने, बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबढ़िया है यह कविता भी
जवाब देंहटाएंसादर-
थाली का बैगन नहीं , बैंगन की ही थाल |
जो बैंगन सा बन रहा, गली उसी की दाल ||
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती, ठोस प्रहार,आभार ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सार्थक प्रस्तुती, आभार
जवाब देंहटाएंयह बैगन गाथा बढिया रही पर ये सफ़ेद बैंगन कहां से ले आये?:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुंदर ,आभार
जवाब देंहटाएं