रूप कितने-रंग कितने।
बादलों के ढंग कितने।।
कहीं चाँदी सी चमक है,
कहीं पर श्यामल बने हैं।
कहीं पर छितराये से हैं,
कहीं पर झुरमुट घने हैं।
मोहते ये मन सभी का,
कर रहे हैं दंग कितने।
बादलों के ढंग कितने।।
सींचने आये धरा को,
अमल-शीतल नीर लेकर।
हल चलेंगे खेत में अब,
धान की तकदीर लेकर।
लग रहे थे पेड़-पौधे,
जल बिना बेरंग कितने।
बादलों के ढंग कितने।।
आस का अंकुर उगा है,
आओ झूमें और गायें।
आओ बारिश में नहायें,
दूर गर्मी को भगायें।
कष्ट देता था पसीना,
सूखते थे अंग कितने।
बादलों के ढंग कितने।।
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शुक्रवार, 14 जून 2013
"जल बिना बेरंग कितने" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर,
जवाब देंहटाएंक्या बात
वाह सवन जैसा लग रहा है, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जल्दी से आयें बदरा।
जवाब देंहटाएंहर पल रूप बदलते बादल, सुन्दर बादल..
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएं:-)
वर्षा-ऋतू का स्वागत करती सुंदर रचना ....
जवाब देंहटाएंवाह ..
जवाब देंहटाएंअनूठी मेघ वन्दना !
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(15-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
sundar swagat rachna
जवाब देंहटाएंआपकी यह सुन्दर रचना शनिवार 15.06.2013 को निर्झर टाइम्स (http://nirjhar-times.blogspot.in) पर लिंक की गयी है! कृपया इसे देखें और अपने सुझाव दें।
जवाब देंहटाएंवर्षा ऋतु का स्वागत करती बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंवाह-- बहुत सुंदर अनुभूति-----
सादर
आग्रह है- पापा ---------
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ !
जवाब देंहटाएंbahut sunder anubhuti guru ji pranaam
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और प्रभावी गीत...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...तस्वीर के साथ और भी
जवाब देंहटाएं