बौराई
गेहूँ की काया,
फिर
से अपने खेत में।
सरसों
ने पीताम्बर पाया,
फिर
से अपने खेत में।।
हरे-भरे
हैं खेत-बाग-वन,
पौधों
पर छाया है यौवन,
फिर
से अपने खेत में।।
नये
पात पेड़ों पर आये,
टेसू
ने भी फूल खिलाये,
भँवरा
गुन-गुन करता आया,
फिर
से अपने खेत में।।
धानी-धानी
सजी धरा है,
माटी
का कण-कण निखरा है,
मोहक
रूप बसन्ती छाया,
फिर
से अपने खेत में।।
पर्वत
कितना अमल-धवल है,
गंगा
की धारा निर्मल है,
कुदरत
ने सिंगार सजाया,
फिर
से अपने खेत में।।
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रविवार, 19 जनवरी 2014
"फिर से अपने खेत में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: आप इतना यहाँ पर न इतराइये.
इस मौसम में खेतों में बहार आ जाती है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअपने खेतो का मज़ा ही अलग है .....वाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएं